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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 264
ऋषिः - रेभः काश्यपः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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य꣢च्छ꣣क्रा꣡सि꣢ परा꣣व꣢ति꣣ य꣡द꣢र्वा꣣व꣡ति꣢ वृत्रहन् । अ꣡त꣢स्त्वा गी꣣र्भि꣢र्द्यु꣣ग꣡दि꣢न्द्र के꣣शि꣡भिः꣢ सु꣣ता꣢वा꣣ꣳ आ꣡ वि꣢वासति ॥२६४॥
स्वर सहित पद पाठय꣢त् । श꣣क्र । अ꣡सि꣢꣯ । परा꣣व꣡ति꣣ । यत् । अर्वा꣣व꣡ति꣢ । वृ꣣त्रहन् । वृत्र । हन् । अ꣡तः꣢꣯ । त्वा꣣ । गीर्भिः꣢ । द्यु꣣ग꣢त् । द्यु꣣ । ग꣢त् । इ꣣न्द्र । केशि꣡भिः꣢ । सु꣣ता꣡वा꣢न् । आ । वि꣣वासति ॥२६४॥
स्वर रहित मन्त्र
यच्छक्रासि परावति यदर्वावति वृत्रहन् । अतस्त्वा गीर्भिर्द्युगदिन्द्र केशिभिः सुतावाꣳ आ विवासति ॥२६४॥
स्वर रहित पद पाठ
यत् । शक्र । असि । परावति । यत् । अर्वावति । वृत्रहन् । वृत्र । हन् । अतः । त्वा । गीर्भिः । द्युगत् । द्यु । गत् । इन्द्र । केशिभिः । सुतावान् । आ । विवासति ॥२६४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 264
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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विषय - अपरा प्रकृति में भी, परा प्रकृति में भी
पदार्थ -
इस मन्त्र का ऋषि (‘रेभः काश्यपः') है। यह ‘काश्यप' इसलिए है कि ‘पश्यति' यह कण-कण में प्रभु की महिमा को देखता है। सूर्य, चन्द्र, तारे और सब लोकलोकान्तरों में यह उस प्रभु के कर्तृत्व को अनुभव करता है। उस प्रभु की अपार शक्ति को देखता हुआ यह उसका स्तोता ‘रेभ’ बनता है और कहता है कि हे (शक्र) = सर्वशक्तिमान् (इन्द्र) = सर्वैश्वर्यशाली प्रभो! (यत्) = क्योंकि आप (परावति) = अपनी (परा) = प्रकृति में अर्थात् जीव के अन्दर भी विद्यमान हैं और (यत्) = क्योंकि (अर्वावति) = अपरा-प्रकृति अर्थात् इन पृथिवी आदि पञ्चभूतों की उपादानकारणभूत प्रकृति में आपकी महिमा दृष्टिगोचर होती है, (अतः) = इसलिए (गीर्भिः) = वेदवाणियों से (त्वा)=आपकी (आ) = सर्वथा (विवासति) = परिचर्या करता है। कौन? (सुतावान्) = जोकि उत्तम ज्ञानवाला है [सुत-ज्ञान, मतुप्- प्रशंसायाम् ], अतएव (घुगत्) = दिव्यता की ओर [द्युलोक की ओर] चल रहा है।
जो लोग खाने, पीने और सोने की दुनियाँ में ही विचरते हैं, वे पृथिवीलोक पर हैं। जो यश की इच्छा [ambition] से दुःखों की परवाह न करते हुए कुछ क्रूर कर्म भी कर जाते हैं, वे अन्तरिक्षलोक में विचरते हैं, और जो शान्त मनोवृत्ति से, यश की इच्छा से ऊपर उठकर अपने चारों ओर माधुर्य का प्रवाह बहाते हुए जीवन-यात्रा करते हैं, वे व्यक्ति द्युलोक में विचरनेवाले हैं। ये ही लोग वस्तुतः प्रभु के सच्चे उपासक हैं। ये सात्त्विक व्यक्ति नित्यसत्वस्थ होते हुए शरीर को छोड़ते ही सत्यस्वरूप प्रभु में प्रवेश पाते हैं। ये द्युलोक के सूर्य की भाँति चमकते हैं। इनका ध्येय न तो आराम और ना ही अर्थ व यश होता है। इनका लक्ष्य तो प्रभु का ज्ञान, दर्शन व प्राप्ति ही होता है, इसलिए ये प्रकृति का प्रयोग करते हुए भी उसमें आसक्त नहीं होते, नाना व्यक्तियों का विषम व्यवहार भी इन्हें व्यथित नहीं करता।
परन्तु प्रश्न यह है कि यह उच्च ज्ञान इन्हें प्राप्त कैसे होता है? इसका उत्तर मन्त्र में (‘केशिभिः') शब्द से दिया गया है। 'केशिनः द्युस्थानाः देवता:' [नि०] =केशी द्युलोक की देवता है। वस्तुतः ये दिव्यता व प्रकाश में विचरणेवाले विद्वान् हैं। उनके सम्पर्क में आकर ही यह ‘रेभः काश्यप' भी 'द्युगत् व सुतावान्' बना है। जैसों के सम्पर्क में हम आते हैं वैसे ही बन जाते हैं। 'घुगत्' बनकर हम अनुभव करते हैं कि किस प्रकार प्रभु की महिमा के दर्शन ने हमें क्रोध व काम से [आसक्ति से] ऊपर उठाया है और हम कह उठते हैं कि हे प्रभो! आप सचमुच (वृत्रहन्) = वासना को विनष्ट करनेवाले हैं।
भावार्थ -
हम जीवों के व्यवहारों और प्रकृति के पदार्थों में प्रभु की महिमा को देखें, जिससे हम न तो किसी पर क्रुद्ध हों और न ही विषयों में आसक्त।
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