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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 271
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
11
क्वे꣢꣯यथ꣣ क्वे꣡द꣢सि पुरु꣣त्रा꣢ चि꣣द्धि꣢ ते꣣ म꣡नः꣢ । अ꣡ल꣢र्षि युध्म खजकृत्पुरन्दर꣣ प्र꣡ गा꣢य꣣त्रा꣡ अ꣢गासिषुः ॥२७१॥
स्वर सहित पद पाठक्व꣢꣯ । इ꣣यथ । क्व꣢꣯ इत् । अ꣣सि । पुरुत्रा꣢ । चि꣣त् । हि꣢ । ते꣣ । म꣡नः꣢꣯ । अ꣡ल꣢꣯र्षि । यु꣣ध्म । खजकृत् । खज । कृत् । पुरन्दर । पुरम् । दर । प्र꣢ । गा꣣यत्राः꣢ । अ꣣गासिषुः ॥२७१॥
स्वर रहित मन्त्र
क्वेयथ क्वेदसि पुरुत्रा चिद्धि ते मनः । अलर्षि युध्म खजकृत्पुरन्दर प्र गायत्रा अगासिषुः ॥२७१॥
स्वर रहित पद पाठ
क्व । इयथ । क्व इत् । असि । पुरुत्रा । चित् । हि । ते । मनः । अलर्षि । युध्म । खजकृत् । खज । कृत् । पुरन्दर । पुरम् । दर । प्र । गायत्राः । अगासिषुः ॥२७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 271
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 3; मन्त्र » 9
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 4;
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विषय - कहाँ भटकते रहे?
पदार्थ -
युध्म गत मन्त्र में यह स्पष्ट हो चुका है कि जब इन्द्रियाँ मन को हर ले जाती हैं और विषयों में भटकती रहती हैं तो वे प्रभु के वरण से कोसों दूर होती हैं। मेधातिथि- समझदार व्यक्ति शम और दम की साधना करता है और इन्द्रियों व मन को अपने में निरुद्ध करने के लिए यत्नशील होता है। यह अपने को इस रूप में प्रेरणा देता है कि-
अरे भाई! (क्व इयथ) = कहाँ भटकते रहे? क्(व इत् असि) = अब भी कहाँ भटक रहे हो ? (ते मनः पुरुत्राचित् हि) = तेरा मन निश्चय से अनेक विषयों में जा रहा है। पृथिवी के एक कोने से दूसरे कोने तक यह भटकता है, समुद्रों, पर्वतों व दिशाओं के अन्तों तक यह जाता है। इसी प्रकार यह भटकता रहा तो मुक्ति कैसे होगी। इसलिए तू (अलर्षि) = [अल्-to prevent, ward off] आज अपने मन पर होनेवाले इन विषयों के आक्रमणों को रोकता है और इनको रोकने के द्वारा ही तू अपने मन को [अल्-जव कवतद] उत्तम गुणों से विभूषित करने का निश्चय करता है। (युध्म) = तू इनके साथ युद्ध करने में बड़ा कुशल बनता है, किसी भी प्रकार इनके धोखे में नहीं आता। (खजकृत्) = इनके विनाश के लिए ही तू अपना मन्थन [अन्तः निरीक्षण] करता है । इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि में अपना अधिष्ठान बना, ये वासनाएँ हमारे अन्दर ही छिपी बैठी होती हैं। अपने किलों से ढूँढ निकालने के लिए ही अपने अन्दर टटोलता है, इनकी तीनों पुरियों का विदारण करनेवाला तू ('पुरन्दर') बनता है। महादेव त्रिपुरारि हैं—तू भी आज त्रिपुरारि बनकर महादेव-सा ही बन जाता है।
ऐसा बनने के लिए ही (गायत्रा:) = प्रभु के स्तोत्रों के गायन से अपना त्राण करनेवाले उपासक लोग (प्र अगासिषु) = प्रभु के गुणों का खूब ही गायन करते हैं। यह प्रभु का गुणगान अवद्य भावनाओं को हमसे दूर रखता है। यह गुणगान की ध्वनि असुरों को नहीं सुहाती। इस ध्वनि का उच्चारण हुआ और असुर दूर भागे।
इस प्रकार इन आसुर वृत्तियों को अपने से दूर भगाकर यह 'मेधातिथि' = समझदार आदमी ‘मेध्य'=उस परम पवित्र प्रभु की ओर ‘अतिथि' चलनेवाला 'मेध्यातिथि' बन जाता
भावार्थ -
हम मन को वश में करके उसे प्रभु में युक्त करें।
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