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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 307
ऋषिः - मेधातिथि0मेध्यातिथी काण्वौ
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣢ त्वा꣣ सो꣡म꣢स्य꣣ ग꣡ल्द꣢या꣣ स꣢दा꣣ या꣡च꣢न्न꣣हं꣡ ज्या꣢ । भू꣡र्णिं꣢ मृ꣣गं꣡ न सव꣢꣯नेषु चुक्रुधं꣣ क꣡ ईशा꣢꣯नं꣣ न या꣢चिषत् ॥३०७॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । त्वा꣣ । सो꣡म꣢꣯स्य । ग꣡ल्द꣢꣯या । स꣣दा꣢꣯ । या꣡च꣢꣯न् । अ꣣हम् । ज्या꣣ । भू꣡र्णि꣢꣯म् । मृ꣣ग꣢म् । न । स꣡व꣢꣯नेषु । चु꣣क्रुधम् । कः꣢ । ई꣡शा꣢꣯नम् । न । या꣣चिषत् ॥३०७॥
स्वर रहित मन्त्र
आ त्वा सोमस्य गल्दया सदा याचन्नहं ज्या । भूर्णिं मृगं न सवनेषु चुक्रुधं क ईशानं न याचिषत् ॥३०७॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । त्वा । सोमस्य । गल्दया । सदा । याचन् । अहम् । ज्या । भूर्णिम् । मृगम् । न । सवनेषु । चुक्रुधम् । कः । ईशानम् । न । याचिषत् ॥३०७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 307
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 8;
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विषय - विनीत वाणी व अक्रोध के द्वारा
पदार्थ -
मन्त्र के ऋषि ‘मेधातिथि व मेध्यातिथि' हैं। जो मेधा से चलता है [मेधया अतति] बुद्धिपूर्वक व्यवहार करता है, वह 'मेध्यं अतति'=पवित्र प्रभु को पा ही लेता है। यह कहता है कि (अहम्) = मैं (सदा) = हमेशा आ- सर्वथा ज्या-जयनशील, दूसरे के हृदय को जीत लेनेवाली अथवा अत्यन्त आग्रह से परिपूर्ण [ ज्या= Importunity] (सोमस्य) = अत्यन्त विनीत पुरुष की (गल्दया) वाणी से (त्वा याचन्) = आपकी प्राप्ति का याचक हूँ। [लट् के स्थान में शतृ ] । जो आप (भूर्णिम्) = सबका भरण करनेवाले हैं और (मृगम्) = [मृग्यम्] अन्वेषणीय हैं अर्थात् आप ही अन्तत: सबके पाने योग्य हैं।
हे प्रभो! आपको पाने के लिए ही मैं (न सवनेषु चुक्रुधम्) = अपने जीवन के प्रातः [२४ वर्ष] माध्यन्दिन [४४ वर्ष] व सायन्तन [४८ वर्ष] सभी सवनों में क्रोध नहीं करता। अपने जीवन का अङ्ग बनाये बिना कोई भी व्यक्ति प्रभु को नहीं पा सकता।
वैसे प्रभु (ईशानम्) = ईशान हैं - सब ऐश्वर्यों के स्वामी हैं और उन्हें (कः न याचिषत्) = कौन प्राप्त न करना चाहेगा? परन्तु केवल चाहने से प्रभु मिल थोड़े ही जाते हैं। वे तो तभी मिलेंगे जबकि मेरी वाणी विनीत पुरुष की वाणी होगी और मेरा जीवन बाल्य, यौवन व बार्धक्य में क्रोध से शून्य होगा।
भावार्थ -
मैं मधुर बोलूँ, क्रोध से दूर रहूँ।
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