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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 339
ऋषिः - रेणुर्वैश्वामित्रः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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इ꣡न्द्रा꣢य꣣ गि꣢रो꣣ अ꣡नि꣢शितसर्गा अ꣣पः꣡ प्रै꣢꣯रय꣣त्स꣡ग꣢रस्य꣣ बु꣡ध्ना꣢त् । यो꣡ अक्षे꣢꣯णेव च꣣क्रि꣢यौ꣣ श꣡ची꣢भि꣣र्वि꣡ष्व꣢क्त꣣स्त꣡म्भ꣢ पृथि꣣वी꣢मु꣣त꣢ द्याम् ॥३३९॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्रा꣢꣯य । गि꣡रः꣢꣯ । अ꣡नि꣢꣯शितसर्गाः । अ꣡नि꣢꣯शित । स꣣र्गाः । अपः꣢ । प्र । ऐ꣣रयत् । स꣡ग꣢꣯रस्य । स । ग꣣रस्य । बु꣡ध्ना꣢꣯त् । यः । अ꣡क्षे꣢꣯ण । इ꣣व । चक्रि꣡यौ꣢ । श꣡ची꣢꣯भिः । वि꣡ष्व꣢꣯क् । वि । स्व꣣क् । तस्त꣡म्भ꣢ । पृ꣣थि꣢वीम् । उ꣣त꣢ । द्याम् ॥३३९॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्राय गिरो अनिशितसर्गा अपः प्रैरयत्सगरस्य बुध्नात् । यो अक्षेणेव चक्रियौ शचीभिर्विष्वक्तस्तम्भ पृथिवीमुत द्याम् ॥३३९॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्राय । गिरः । अनिशितसर्गाः । अनिशित । सर्गाः । अपः । प्र । ऐरयत् । सगरस्य । स । गरस्य । बुध्नात् । यः । अक्षेण । इव । चक्रियौ । शचीभिः । विष्वक् । वि । स्वक् । तस्तम्भ । पृथिवीम् । उत । द्याम् ॥३३९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 339
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 8
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

रीङ् गतौ धातु से रेणु शब्द बना है - नदी की भाँति निरन्तर गतिशील बना रहनेवाला रेणु है। क्रिया इसका स्वभाव बन गया है। यह सब का मित्र है—सभी का भला चाहनेवाला है। ‘क्रियाशील रहना और सबका भला चाहना' ही मनुष्यत्व है। इस रेणु के जीवन में निम्न बातें हैं

१. यह (इन्द्रस्य) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (अ- निशित-सर्गा:) = जो कभी (क्षीणः) = नष्ट नहीं होतीं, उन (गिर:) = वाणियों को सदा (प्रैरयत्) = मुख से उच्चारण करता है। सोते-जागते, खाते-पीते, उठते-बैठते प्रभु के नाम इसे विस्मृत नहीं होता।

२. यह (सगरस्य)=हृदयान्तरिक्ष के (बुध्नात्) = मूल से (अपः) = कर्मों को (प्रेरयत्) = प्रेरित करता है, अर्थात् यह कोई काम अधूरे मन से नहीं करता। मन से युद्ध करनेवाले क्षत्रिय होते हैं। 

३. (यः) = यह (अक्षेण इव) = जैसे धुरे से [Axel] (चक्रियौ) = दोनों चक्रों को, इसी प्रकार (शचीभिः) = शक्तियों व प्रज्ञानों के द्वारा (पृथिवी) = शरीर को (उत्) = और (द्याम्) = मस्तिष्क [मूर्ध्न द्यौः] को (विष्वक्) = दोनों ओर [वि] अत्यन्त [सु] पूजितरूप से [अञ्च पूजायाम् ] (तस्तम्भ)  = धारण करता है। यह रेणु शरीर व मस्तिष्क दोनों का ही समानरूप से ध्यान करता है । यह शरीर रथ है तो अन्नमय और विज्ञानमय कोश दोनों ही तो उसके चक्र हैं। एक चक्र ठीक होने से कैसे काम चल सकता है?

भावार्थ -

हम भी सदा प्रभु के नाम का जप करें, मन से कार्य करें, शरीर व मस्तिष्क दोनों का ध्यान करें।

इस मन्त्र का आधिदैविक अर्थ यह है- उस प्रभु के लिए निरन्तर न ढीली पड़ी भक्ति से गायन करो जो कि अन्तरिक्षलोक से जलों को प्रेरित करता है और जो अक्ष से चक्रों की भाँति पृथिवी व द्युलोक का धारण करता है।

(आधिभौतिक अर्थ)- उस राजा के लिए सदा प्रशंसात्मक वाणियों को बोलो जोकि प्रजाओं को मन से उत्तम मार्ग पर प्रेरित करता है और जो लोगों की शारीरिक व पार्थिव उन्नति की ओर उतना ही ध्यान देता है जितना कि उन्हें ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कराने की।

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