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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 341
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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को꣢ अ꣣द्य꣡ यु꣢ङ्क्ते धु꣣रि꣢꣫ गा ऋ꣣त꣢स्य꣣ शि꣡मी꣢वतो भा꣣मि꣡नो꣢ दुर्हृणा꣣यू꣢न् । आ꣣स꣡न्ने꣢षामप्सु꣣वा꣡हो꣢ मयो꣣भू꣡न्य ए꣢꣯षां भृ꣣त्या꣢मृ꣣ण꣢ध꣣त्स꣡ जी꣢वात् ॥३४१॥

स्वर सहित पद पाठ

कः꣢ । अ꣣द्य꣢ । अ꣣ । द्य꣢ । यु꣣ङ्क्ते । धुरि꣢ । गाः । ऋ꣣त꣡स्य꣢ । शि꣡मी꣢꣯वतः । भा꣣मि꣡नः꣢ । दु꣣र्हृणायू꣢न् । दुः꣣ । हृणायू꣢न् । आ꣣स꣢न् । ए꣣षाम् । अप्सुवा꣡हः꣢ । अ꣣प्सु । वा꣡हः꣢꣯ । म꣣योभू꣢न् । म꣣यः । भू꣢न् । यः । ए꣣षाम् । भृत्या꣢म् । ऋ꣣ण꣡ध꣢त् । सः । जी꣣वात् ॥३४१॥


स्वर रहित मन्त्र

को अद्य युङ्क्ते धुरि गा ऋतस्य शिमीवतो भामिनो दुर्हृणायून् । आसन्नेषामप्सुवाहो मयोभून्य एषां भृत्यामृणधत्स जीवात् ॥३४१॥


स्वर रहित पद पाठ

कः । अद्य । अ । द्य । युङ्क्ते । धुरि । गाः । ऋतस्य । शिमीवतः । भामिनः । दुर्हृणायून् । दुः । हृणायून् । आसन् । एषाम् । अप्सुवाहः । अप्सु । वाहः । मयोभून् । मयः । भून् । यः । एषाम् । भृत्याम् । ऋणधत् । सः । जीवात् ॥३४१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 341
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

कोई भी व्यक्ति अपने को केवल अपने परिवार में ही सीमित करके नहीं रख सकता। उसे समाज से सम्बद्ध होना ही पड़ता है। समाज में आकर इस वामदेव गौतम का जीवन निम्न प्रकार का होता है- १. (कः)=प्रजापति (अद्य) = आज (धुरि) = अग्रभाग में (युंक्ते) = इसे जोतता है। वामदेव ने प्रभु को अपना सखा बनाया है [ त्वा सखायः] और उस प्रभु ने प्रेरणा देकर इसे कार्यक्षेत्र में अग्रभाग में नियत किया है। सामाजिक हित के कार्य करनेवालों का यह मुखिया बनता है। २. (ऋतस्य गाः) = [ युंक्ते ] - प्रभु इसके साथ सत्य की वाणियों को जोड़ते हैं। यह कभी असत्य की ओर झुकाववाला नहीं होता। यह प्रिय सत्य का ही उच्चारण करता है। ३. (शिमीवतः) =‘शिमी' कर्म का नाम है - उन कर्मों का जिनमें कि मनुष्य व्यग्र न होकर शान्त रह पाता हैं ये अव्यग्रता से महान् से महान् कार्य को करनेवाले होते हैं, ४. (भामिनः) = ये तेजस्वी होते हैं, ५. (दुणायून्) = ये बुराई के लिए लया अनुभव करते हैं। [हृणीय – feal ashamed at] ६.( एषाम्) = इनके (आसन्) = मुख में प्रभु (युंक्ते) = उन वाणियों को जोड़ते हैं जोकि (अप्सुवाहः) = उन्हें कर्मों में ले चलनेवाली हैं और (मयोभून्) = कल्याण को जन्म देनेवाली हैं, अर्थात् इनकी वाणी किसी का हृदय दुखाने के लिए तो कभी उच्चरित होती ही नहीं; और यह क्रियारूप में परिणत होती है ।

इस प्रकार के जीवनवाले व्यक्ति ही समाज का हित कर सकते हैं, (य:) = जो (एषाम्) = इन व्यक्तियों की (भृत्याम्) = दासता को (ऋणधत्) = प्राप्त होता है, (स जीवात्) = वही जीये, अर्थात् जीवन तो उस ही व्यक्ति का सफल है जोकि इस प्रकार के लोगों का दास बनता है- ऐसे ही लोगों का अनुगामी बनता है।

भावार्थ -

हमारा सामाजिक जीवन निम्न प्रकार का हो - हम सदा कार्यों में लगे रहें, सत्यवादी हों – अव्यग्र तेजस्वी व बुराई से शर्म करनेवाले हों। हमारी वाणी कल्याणकर व क्रिया में परिणत होनेवाली हो ।

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