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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 353
ऋषिः - वामदेवो गौतमः, शाकपूतो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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आ꣡ नो꣢ वयोवयःश꣣यं꣢ म꣣हा꣡न्तं꣢ गह्वरे꣣ष्ठां꣢ म꣣हा꣡न्तं꣢ पूर्वि꣣ने꣢ष्ठाम् । उ꣣ग्रं꣢꣫ वचो꣣ अ꣡पा꣢वधीः ॥३५३
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । नः꣣ । वयोवयश्शय꣢म् । व꣣योवयः । शय꣢म् । म꣣हा꣡न्त꣢म् । ग꣣ह्वरेष्ठा꣢म् । ग꣣ह्वरे । स्था꣢म् । म꣣हा꣡न्तं꣢ । पू꣣र्विनेष्ठा꣢म् । पू꣣र्विने । स्था꣢म् । उ꣣ग्र꣢म् । व꣡चः꣢꣯ । अ꣡प꣢꣯ । अ꣣वधीः ॥३५३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नो वयोवयःशयं महान्तं गह्वरेष्ठां महान्तं पूर्विनेष्ठाम् । उग्रं वचो अपावधीः ॥३५३
स्वर रहित पद पाठ
आ । नः । वयोवयश्शयम् । वयोवयः । शयम् । महान्तम् । गह्वरेष्ठाम् । गह्वरे । स्थाम् । महान्तं । पूर्विनेष्ठाम् । पूर्विने । स्थाम् । उग्रम् । वचः । अप । अवधीः ॥३५३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 353
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 1;
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विषय - क्या उपादेय है, क्या हेय है
पदार्थ -
हे प्रभो! (नः) = हमें (आ) = सर्वथा (अवधी:) = [हन्- प्राप्त करना] प्राप्त कराइऐ । क्या-क्या? १. (वयः) = [क] Sacrificial food= यज्ञिय भोजन | सात्त्विक भोजन जीवन निर्माण का मूल है, [ख] सात्त्विक शक्ति Energy, strength = सात्त्विक भोजन से हमें उत्तम शक्ति प्राप्त हो, [ग] soundnes of constitution = स्वस्थ शरीर । संक्षेप में सबसे प्रथम प्राप्य वस्तु यह है कि हम सात्त्विक भोजन के द्वारा शक्ति की प्राप्त करके स्वस्थ शरीरवाले बनें।
(वयःशयम्) = [शय=couch = बैठने की जगह ] - हमें वे वस्तुएँ प्राप्त हों जिनका कि यह स्वस्थ शरीर शय = आधार है। प्रभु ने देवताओं के निवास के लिए इस शरीर को बनाया है। देवताओं ने भी इसे पसन्द किया ('अयं नो बत सुकृतेति') और सारे देवता इसमें निवास करने लगे, ('सर्वा ह्यस्मिन् देवता गावो गोष्ठ इवासते')। सूर्य आँखों में, दिशाएँ कानों में, अग्नि मुख में इसी प्रकार भिन्न-भिन्न स्थानों में देव रहने लगे। हमें इन देवों को प्राप्त कराइऐ । हमारी सब इन्द्रियाँ ठीक हों।
यघपि मन व बुद्धि भी इन देवों के अन्दर समाविष्ट हैं तो भी विशेषता प्रदर्शन के लिए ('ब्राह्मणा आयाता वसिष्ठोऽप्यातः') इस न्याय से मन और बुद्धि का अलग उल्लेख करते हुए कहते हैं कि ३. (महान्तं गह्वरेष्ठाम्) = हृदयरूप गुहा में ठहरनेवाले [हृत्प्रतिष्ठम् महान्तम्]=मन को [महान् ही मन है, मन महान् होना ही चाहिऐ] प्राप्त कराइऐ। हमारा मन हृत्प्रतिष्ठ=श्रद्धरूपी मूलवाला हो और महान् हो।
४. (महान्तं पूर्विणेष्ठाम्) = पूर्विणे - पुराण तत्व आत्मा के लिए इस शरीररूप रथ पर स्थित होनेवाले बुद्धितत्त्व को हमें प्राप्त कराइए । आत्मा रथी है- उसका सारथि बुद्धि है। समष्टि में जो महान् तत्त्व है, वही व्यष्टि में बुद्धि है। इस प्रकार आत्मा की उन्नति के साधनभूत बुद्धि की यहाँ प्रार्थना है।
चार वस्तुएँ उपादेयरूप से कही गईं हैं- स्वस्थ शरीर, सब दिव्य शक्तियाँ- उत्तम इन्द्रियाँ, महान् मन और आत्मा की सारथिभूत बुद्धि । इन चार वस्तुओं को उपादेयरूप से कहकर हेय वस्तु का संकेत इन शब्दों में करते हैं कि (नः) = हमसे (उग्रं वचः) = तेज शब्दों को, कटु वाक्यों को (अपअवधी:) = दूर कीजिए। हम कभी कड़वी वाणी न बोलें। इन सब उपादेय वस्तुओं की प्राप्ति व हेय वस्तु का त्याग इसी बात पर निर्भर करता है कि हम सात्त्विक भोजन [वय] को अपनाएँ। इसे अपनानेवाला व्यक्ति ‘शाकपूत'=शक्ति देनेवाले वानस्पतिक भोजनों से अपने को पवित्र करनेवाला ही इस मन्त्र का ऋषि है। यह दिव्य गुणोंवाला तो बनता ही है अतः ‘वामदेव' होता है।
भावार्थ -
हम सात्विक भोजन का सेवन कर सात्त्विक वाणी का ही उच्चारण करें।
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