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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 376
ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣भि꣢꣫ त्यं मे꣣षं꣡ पु꣢रुहू꣣त꣢मृ꣣ग्मि꣢य꣣मि꣡न्द्रं꣢ गी꣣र्भि꣡र्म꣢दता꣣ व꣡स्वो꣢ अर्ण꣣व꣢म् । य꣢स्य꣣ द्या꣢वो꣣ न꣢ वि꣣च꣡र꣢न्ति꣣ मा꣡नु꣢षं भु꣣जे꣡ मꣳहि꣢꣯ष्ठम꣣भि꣡ विप्र꣢꣯मर्चत ॥३७६॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣भि꣢ । त्यम् । मे꣣ष꣢म् । पु꣣रुहूत꣢म् । पु꣣रु । हूत꣢म् । ऋ꣣ग्मि꣡य꣢म् । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । गी꣣र्भिः꣢ । म꣣दत । व꣡स्वः꣢꣯ । अ꣣र्णव꣢म् । य꣡स्य꣢꣯ । द्या꣡वः꣢꣯ । न । वि꣣चर꣢न्ति । वि꣣ । च꣡र꣢꣯न्ति । मा꣡नु꣢꣯षम् । भु꣣जे꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठम् । अ꣣भि꣢ । वि꣡प्र꣢꣯म् । वि । प्र꣣म् । अर्चत ॥


स्वर रहित मन्त्र

अभि त्यं मेषं पुरुहूतमृग्मियमिन्द्रं गीर्भिर्मदता वस्वो अर्णवम् । यस्य द्यावो न विचरन्ति मानुषं भुजे मꣳहिष्ठमभि विप्रमर्चत ॥३७६॥


स्वर रहित पद पाठ

अभि । त्यम् । मेषम् । पुरुहूतम् । पुरु । हूतम् । ऋग्मियम् । इन्द्रम् । गीर्भिः । मदत । वस्वः । अर्णवम् । यस्य । द्यावः । न । विचरन्ति । वि । चरन्ति । मानुषम् । भुजे । मँहिष्ठम् । अभि । विप्रम् । वि । प्रम् । अर्चत ॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 376
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 3;
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पदार्थ -

अपने जीवन को यज्ञमय बनानेवाला ('सव्य आङ्गिरस')  इस मन्त्र का ऋषि है। (सर्वो में) = यज्ञों में यह उत्तम है और विषयासक्त न होने से 'शक्तिशाली' है-आंगिरस है। यह कहता है कि (त्यम्) = उस प्रभु की अभि-ओर चलो जो कि– १. (मेषम्) = सींचनेवालो हैं, धनों की वर्षा करनेवाले हैं, २. (पुरुहूतम्) = जिनके प्रति पुकार पालन व पूरण करनेवाली है और इसीलिए जो ३. (ऋग्मियम्) = अर्चनीय व पूजनीय हैं, ४. (इन्द्रम्) = जो परमैश्वर्यशाली हैं, ५. (वस्वो अर्णवम्) = निवास के लिए उत्तम धनों के जो समुद्र हैं, ६. (यस्य) = जिनके (मानुषम्) = मानव हित के कार्य (द्यावो न) = सूर्य की किरणों के समान या आकाश के समान सर्वत्र (विचरन्ति) = विचरते हैं अर्थात् विद्यमान् हैं, ७. और जो प्रभु (भुजे) = पालन के लिए (मंहिष्ठम्) = दातृतम हैं। प्रभु भक्त कभी भूखे थोड़े ही मरते हैं? आवश्यक धन उन्हें प्राप्त हो ही जाता है। वे प्रभु तो ८. (विप्रम्) = विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं।

इस प्रभु को (गीर्भिः) = वेदवाणियों से (मदता) = आनन्दित करो। यदि मनुष्य वेद का अध्ययन करता है-ज्ञान प्राप्ति को अपने जीवन का मुख्य अङ्ग बनाता है तो वह सचमुच उस प्रभु को ज्ञान यज्ञ से आराधित करता है। जीवों को चाहिए कि (अभि अर्चत) = सब प्रकार से इस प्रभु की अर्चना को वे अपने जीवन का लक्ष्य बनाएँ।

भावार्थ -

भावार्थ- मैं प्रभु का भक्त बनूँ, वे धन के समुद्र हैं, अतः मुझे क्या चिन्ता ?
 

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