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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 400
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - इन्द्रः
छन्दः - ककुप्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
8
यो꣡ न꣢ इ꣣द꣡मि꣢दं पु꣣रा꣡ प्र वस्य꣢꣯ आनि꣣ना꣢य त꣡मु꣢ व स्तुषे । स꣡खा꣢य꣣ इ꣡न्द्र꣢मू꣣त꣡ये꣢ ॥४००॥
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । नः꣢ । इद꣡मि꣢दम् । इ꣣द꣢म् । इ꣣दम् । पुरा꣢ । प्र । व꣡स्यः꣢꣯ । आ꣣नि꣡नाय꣢ । आ꣣ । निना꣡य꣢ । तम् । उ꣣ । वः । स्तुषे । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । ऊ꣣त꣡ये꣢ ॥४००॥
स्वर रहित मन्त्र
यो न इदमिदं पुरा प्र वस्य आनिनाय तमु व स्तुषे । सखाय इन्द्रमूतये ॥४००॥
स्वर रहित पद पाठ
यः । नः । इदमिदम् । इदम् । इदम् । पुरा । प्र । वस्यः । आनिनाय । आ । निनाय । तम् । उ । वः । स्तुषे । सखायः । स । खायः । इन्द्रम् । ऊतये ॥४००॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 400
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 6;
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विषय - उत्तम धनों की प्राप्ति
पदार्थ -
सोभरि ऋषि कहते हैं कि (यः) = जो प्रभु (नः) = हमारे (वः) = तुम्हारे लिए (इदम् इदम्) = इस-इस प्रत्यक्ष दृश्य व प्राप्त (प्रवस्यः) = प्रकृष्ट धन को (आनिनाय) = प्राप्त कराता है (तम्) = उस प्रभु को (उ) = ही (स्तुषे) = स्तुत करते हैं। हम उस प्रभु की ही स्तुति करते हैं। उस प्रभु ने हमारे शरीर की रक्षा व धारण के लिए किस प्रकार उत्तमोत्तम फलों, शाकों व अन्नों को उत्पन्न किया है। मानस उन्नति के लिए सृष्टि को विविध सौन्दर्यों से किस अद्भुत प्रकार से भर दिया है ? और संसार के रहस्यों को समझने के लिए हमें बुद्धि दी है।
सोभरि कहते हैं कि (सखायः) = हे मित्रो! (इन्द्रम्) = हम उस प्रभु को ही पूजें, जिससे (ऊतये) = अपनी रक्षा के लिए समर्थ हों। उस प्रभु की उपासना से दूर होने पर ये प्राकृतिक शाक-फल भोज्य पदार्थ विविध भोगों में परिणत हो जाते हैं ओर हमारी इन्द्रिय-शक्तियों को जीर्ण कर देते हैं। प्रभु की उपासना से दूर हाने पर ये प्राकृतिक सौन्दर्य मन को प्रसन्नता से भरने के स्थान पर प्रलोभनों से भर देते हैं। इसी प्रकार प्रभु की उपासना से दूर होने पर हमारी बुद्धि भी नाश को उपस्थित कर देती है। प्रभु की उपासना ही (ऊतये) = रक्षा के लिए है।
भावार्थ -
प्रभु की उपासना के बिना सब उत्तम वसु रक्षा के स्थान पर नाश के कारण बन जाते हैं।
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