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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 409
ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्रः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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स्वा꣣दो꣢रि꣣त्था꣡ वि꣢षू꣣व꣢तो꣣ म꣡धोः꣢ पिबन्ति गौ꣣꣬र्यः꣢꣯ । या꣡ इन्द्रे꣢꣯ण स꣣या꣡व꣢री꣣र्वृ꣢ष्णा꣣ म꣡द꣢न्ति शो꣣भ꣢था꣣ व꣢स्वी꣣र꣡नु꣢ स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् ॥४०९॥

स्वर सहित पद पाठ

स्वा꣣दोः꣢ । इ꣣त्था꣢ । वि꣣षुव꣡तः꣢ । वि꣣ । सुव꣡तः꣢ । म꣡धोः꣢꣯ । पि꣣बन्ति । गौ꣡र्यः꣢꣯ । याः । इ꣡न्द्रे꣢꣯ण । स꣣या꣡व꣢रीः । स꣣ । या꣡व꣢꣯रीः । वृ꣡ष्णा꣢꣯ । म꣡द꣢꣯न्ति । शो꣣भ꣡था꣢ । व꣡स्वीः꣢꣯ । अ꣡नु꣢꣯ । स्व꣣रा꣡ज्य꣢म् । स्व꣣ । रा꣡ज्य꣢꣯म् ॥४०९॥


स्वर रहित मन्त्र

स्वादोरित्था विषूवतो मधोः पिबन्ति गौर्यः । या इन्द्रेण सयावरीर्वृष्णा मदन्ति शोभथा वस्वीरनु स्वराज्यम् ॥४०९॥


स्वर रहित पद पाठ

स्वादोः । इत्था । विषुवतः । वि । सुवतः । मधोः । पिबन्ति । गौर्यः । याः । इन्द्रेण । सयावरीः । स । यावरीः । वृष्णा । मदन्ति । शोभथा । वस्वीः । अनु । स्वराज्यम् । स्व । राज्यम् ॥४०९॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 409
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 7;
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पदार्थ -

(वेदवाणी का आस्वादन:) = वेद में गौरी शब्द 'वाक्' का पर्यायवाची है। वाणी अन्य इन्द्रियों की भी प्रतिनिधि है। अग्नि ही तो वाणी का रूप धारण करके मुख व द्वार है । यह उन सबका 'अग्रणी: ' है। एवं वाणी अन्य सब इन्द्रियों का प्रतिनिधित्व करती है। यहाँ 'गौर्य' इस बहुवचन का प्रयोग भी यह स्पष्ट करता है कि 'गौर्य: ' शब्द से सब इन्द्रियों को ही लेना है। इन इन्द्रियों के लिएए कहते हैं कि (गौर्य:) =  मेरी सब इन्द्रियाँ शुद्ध बनी हुई [गौर - धवल, शुभ्र] (स्वादीः इत्था) = सचमुच आनन्द देनेवाले (विषुवत:) = सर्वव्यापक प्रभु के (मधो:) = मधुरूप अत्यन्त सारभूत वेदज्ञान का (पिबन्ति) = पान करती है। 'वेदज्ञान रसवाला है' यह अनुभव प्रत्येक स्वाध्यायशील व्यक्ति का होता है। प्रारम्भ में अगम, दुर्बोध, नीरस प्रतीत होनेवाले मन्त्र जरा-सा प्रवेश होने पर सरस प्रतीत होने लगते हैं। अन्त में उनका आनन्द शब्द से वर्णनीय ही नहीं रहता। उनका एक - एक शब्द महत्त्वपूर्ण प्रतीत होने लगता है - उनके शब्दों का क्रम चामत्कारिक दिखता है। ये वेदवाणियाँ मधुरूप हैं- अत्यन्त सारभूत हैं। इनका एक-एक शब्द ज्ञान का भण्डार हैं। इनमें सम्पूर्ण ज्ञान बीजरूप से निहित है। इसलिएए हम अपनी इन्द्रियों से सदा इसका पान करें।

(कैसी इन्द्रियाँ) - परन्तु कौन सी इन्द्रियाँ इसका पान करती हैं ! १. (या:) = जोकि (इन्द्रेण) = आत्मा के साथ (सयावरी:) = मिलकर चलनेवाली हैं। जब इन्द्रियाँ आत्मा से दूर प्राकृतिक भोग्य पदार्थों में विचरती हैं, तब उनके लिए वेदवाणियाँ रुचिकर नहीं होती। २. (वृष्णाः) = जो शक्तिशाली हैं। आत्मा के साथ विचरने के कारण ही ये भोगमार्ग पर न जाने का परिणाम है कि ये शक्तिशाली बनी हुई हैं। ३. (मदन्ति) = जो हर्षित होती हैं। एक - एक इन्द्रिय जब शक्तिशाली होती है तब जीवन में एक उल्लास होता है। ४. (शोभथा) = उस समय ये इन्द्रियाँ शक्ति-उल्लास व शक्तिजन्य उत्तम कर्मों से शोभावाली होती हैं। ये चमकती हैं। इसी दिन इनका 'देव' नाम सार्थक होता है, ५. (वस्वीः) = ये उत्तम निवासवाली होती हैं, अर्थात् इन्द्रियों के आत्मा के साथ विचरण करने, शक्तिशाली, उल्लासमय व शोभायुक्त होने पर ही जीव का शरीर में उत्तम वास होता है।

(कब) - अब प्रश्न यह है कि 'इन्द्रियाँ ऐसी बनेंगी कब'? मन्त्र में उत्तर देते हैं कि (अनुस्व- राज्यम्) = स्वराज्य के बाद । जब मनुष्य अपना राजशासन कर पाएगा, तभी उसकी इन्द्रियाँ उल्लिखित प्रकार की बन पाएँगी। आत्मनियन्त्रण के बिना इन्द्रियों का उत्तम बनना

सम्भव नहीं। (‘सर्वमात्मावशं सुखम्') आत्मा के वश होने पर ही सब ‘सु-ख' - इन्द्रियों की उत्तमता होती है। स्वाधीनता में ही आनन्द है। स्वराज्य = आत्मसंयम [Self-control] के बाद इस उल्लास व हर्ष का अनुभव करनेवाला 'सम्मद' [उत्तम हर्षवाला] इस मन्त्र का ऋषि है। सब विषयों को त्यागकर [रह त्यागे] ही यह ऐसा बना है, अतः राहू- त्यागनेवाला है। त्यागनेवालों में भी प्रथम स्थान में गणनीय होने से 'राहूगण' है।

भावार्थ -

आत्मसंयम से मैं इन्द्रियों को आत्मा के साथ विचरनेवाला बनाकर इससे वेदवाणियों का रस लेनेवाला बनूँ।

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