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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 423
ऋषिः - गोतमो राहूगणः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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क्र꣡त्वा꣢ म꣣हा꣡ꣳ अ꣢नुष्व꣣धं꣢ भी꣣म꣡ आ वा꣢꣯वृते꣣ श꣡वः꣢ । श्रि꣣य꣢ ऋ꣣ष्व꣡ उ꣢पा꣣क꣢यो꣣र्नि꣢ शि꣣प्री꣡ हरि꣢꣯वान् दधे꣣ ह꣡स्त꣢यो꣣र्व꣡ज्र꣢माय꣣स꣢म् ॥४२३॥
स्वर सहित पद पाठक्र꣡त्वा꣢꣯ । म꣣हा꣢न् । अ꣣नुष्वध꣢म् । अ꣣नु । स्वध꣢म् । भी꣣मः꣢ । आ । वा꣣वृते । श꣡वः꣢꣯ । श्रि꣣ये꣢ । ऋ꣣ष्वः꣢ । उ꣣पाक꣡योः꣢ । नि । शि꣣प्री꣢ । ह꣡रि꣢꣯वान् । द꣣धे । ह꣡स्त꣢꣯योः । व꣡ज्र꣢꣯म् । आ꣣यस꣢म् ॥४२३॥
स्वर रहित मन्त्र
क्रत्वा महाꣳ अनुष्वधं भीम आ वावृते शवः । श्रिय ऋष्व उपाकयोर्नि शिप्री हरिवान् दधे हस्तयोर्वज्रमायसम् ॥४२३॥
स्वर रहित पद पाठ
क्रत्वा । महान् । अनुष्वधम् । अनु । स्वधम् । भीमः । आ । वावृते । शवः । श्रिये । ऋष्वः । उपाकयोः । नि । शिप्री । हरिवान् । दधे । हस्तयोः । वज्रम् । आयसम् ॥४२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 423
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 5
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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विषय - सात्त्विक अन्न का सेवन
पदार्थ -
(गत) मन्त्र में हृदय में क्रतु होने का उल्लेख है। वस्तुतः क्रतु से ही मनुष्य की महत्ता है। (क्रत्वा) = कर्मशीलता से (महान्) = तू पूज्य होता है[मह पूजायाम्] |
'यह वार्धक्य तक कर्म करता रह सके' इसके लिए यह सात्त्विक अन्न से अपने शरी को शक्ति सम्पन्न बनाता है। 'स्वधा' उस सात्त्विक अन्न का नाम है जिससे कि यह अपना धारण करता है। (अनुष्वधम्) = उस सात्त्विक अन्न के सेवन के अनुपात में ही (भौमः शव:) = सब विघ्न-बाधाओं को पार कर जानेवाली प्रबल शक्ति (आ वावृते) = प्रचूरता से प्रवृत्त होती है। राजस भोजन विद्यमान शक्ति में एक उबाल लाता है। सात्त्विक भोजन 'स्थिर' होता है, यह मनुष्य को अन्त तक शक्तिशाली बनाये रखता है।
यह (श्रिये) = शोभा के लिए (ऋष्व) = महान् बनता है। यह कहीं भी छोटेपन को प्रकट नहीं करता। (शिप्री) = शिरस्त्राणवाला बनकर तथा (हरिवान्) = उत्तम इन्द्रियरूप घोड़ोंवाला होकर यह (उपाकयोः हस्तयोः) = [उप + अञ्च] प्रभु की ओर [उसके समीप] ले-जानेवाले हाथों में (आयसं वज्रम्) = लोहे की बनी वज्र को (निदधे) = धारण करता है। यह अपने मस्तिष्क को शुद्ध रखता है और अपनी इन्द्रियों को मलिन नहीं होने देता। प्रशस्त ज्ञान व उत्तम इन्द्रियोंवाला बनकर यह अपने हाथों में अनथक [आयसम्] क्रियाशीलता [वज्रं = वज् गतौ] को स्थान देता है। न थकने वाले को हिन्दी में इसी रूप में कहते हैं कि इसकी टांगे तो लोहे की हैं। अनथक होकर यह कर्म करता रहता है। यह कर्म ही उसे प्रभु के समीप प्राप्त करता रहता है। इस कर्म से उसकी सब इन्द्रियाँ शुद्ध बनी रहती हैं - यह ‘गोतम'=प्रशस्त इन्द्रियोंवाला होता है। आलस्य राजस व तामस भोजन तथा आराम आदि को छोड़ने के कारण यह ‘राहूगण' = त्यागियों में गिनने योग्य कहलाता है।
भावार्थ -
मैं क्रतु से महान् बनूँ, सात्त्विक अन्न से स्थिर शक्ति सम्पादन करूँ। शोभा के लिए हृदय में विशालता को धारण करूँ और मेरे हाथों में अनथक क्रियाशीलता हो ।
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