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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 425
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣣ग्निं꣡ तं म꣢꣯न्ये꣣ यो꣢꣫ वसु꣣र꣢स्तं꣣ यं꣡ यन्ति꣢꣯ धे꣣न꣡वः꣢ । अ꣢स्त꣣म꣡र्व꣢न्त आ꣣श꣢꣫वोऽस्तं꣣ नि꣡त्या꣣सो वा꣣जि꣢न꣣ इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥४२५॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣣ग्नि꣢म् । तम् । म꣣न्ये । यः꣢ । व꣡सुः꣢꣯ । अ꣡स्त꣢꣯म् । यम् । य꣡न्ति꣢꣯ । धे꣣न꣡वः꣢ । अ꣡स्त꣢꣯म् । अ꣡र्व꣢꣯न्तः । आ꣣श꣡वः꣢ । अ꣡स्त꣣म् । नि꣡त्या꣢꣯सः । वा꣣जि꣡नः꣢ । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥४२५॥


स्वर रहित मन्त्र

अग्निं तं मन्ये यो वसुरस्तं यं यन्ति धेनवः । अस्तमर्वन्त आशवोऽस्तं नित्यासो वाजिन इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥४२५॥


स्वर रहित पद पाठ

अग्निम् । तम् । मन्ये । यः । वसुः । अस्तम् । यम् । यन्ति । धेनवः । अस्तम् । अर्वन्तः । आशवः । अस्तम् । नित्यासः । वाजिनः । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥४२५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 425
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 8;
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पदार्थ -

किसी भी बात को समझने का सबसे अच्छा प्रकार उसका लक्षण करना है। इसी शैली पर यहाँ अग्नि, अस्त और स्तोता का लक्षण किया गया है। (अग्निं तं मन्ये) = मैं अग्नि उन्नतिशील उस को मानता हूँ (यः वसु) = जो वसु है - रहने का प्रकार जानता है। प्रभु ने मुझे यह शरीररूप घर दिया है। यदि इस शरीर में रोग हैं, मन में ईर्ष्या-द्वेष व मस्तिष्क में कुविचार व अन्धकार है तो मुझे क्या रहना आता है? मैं वसु नहीं, परिणामतः मैं अग्नि नहीं–अग्रेणी: प्रगतिशील नहीं। प्रगतिशील वहीं है जो इस शरीर में रहना जानता है। सात्त्विक भोजन का सेवन ही एकमात्र साधन है जिससे कि मनुष्य अपने निवास को सर्वथा उत्तम बना सकता है।

'अस्तम्' शब्द संस्कृत में गृह का पर्याय है। (अस्तम् तं मन्ये) = घर मैं उसी को मानता हूँ (य धनेवः यन्ति) = जिससे गौवें प्राप्त होती हैं। ('आ धेनवः साधमास्पन्दमाना:) = यह गृहसूक्त का वाक्य सायंकाल उछलती-कूदती गौवों के घर में लौटने का चित्रण करता है। गौर मनुष्य का दायाँ हाथ है। इसका दूध ही मनुष्य में सात्त्विकता की वृद्धि करता है। फिर (अस्तं) = घर मैं उसको मानता हूँ (यम् आशवः अर्वन्त) = जिसे तीव्रगतिवाले घोड़े प्राप्त होते हैं। ये घोड़े उत्तम व्यायाम के साधन बनकर मनुष्य की शक्ति की वृद्धि करेंगे। गौवें ब्रह्म को तो घोड़े क्षत्र को बढ़ानेवाले होंगे। इसके बाद (अस्तम्) = घर वह है जिसमें (नित्यासो वाजिनः) = स्थिर वाजवाले पुरुष निवास करते हैं। सात्त्विक भोजनों के सेवन का परिणाम यह होता है कि उनमें स्थिर शक्ति की उत्पत्ति होती है, ये जीर्ण नहीं होते - स्थविर बने रहते हैं। एवं, घर वही है जहाँ गौवें, घोड़े व स्थिर शक्तिवाले पुरुष हैं। प्रस्तुत परिस्थिति में जहाँ गोदुग्ध का सेवन है, आसनादि का उचित व्यायाम है तथा सशक्त पुरुष हैं, वे ही आदर्श घर हैं।

स्तोता वे हैं जिन (स्तोतृभ्यः) = अपने भक्तों के लिए प्रभु (इषम्) = प्रेरणा (आभर) = प्राप्त कराते हैं और फिर (स्तोतृभ्यः) = जिन स्तोताओं से प्रभु लोक में समन्तात (इषम्) =प् रेरणा को (आभर) = भरते हैं। सच्चे स्तोता को प्रभु से प्रेरणा प्राप्त होती है और वह उस प्रेरणा को लोगों तक पहुँचाता है। यही ज्ञानधनी स्तोता 'वसुश्रुत' है, काम-क्रोध-लोभ से ऊपर उठा हुआ आत्रेय है।

भावार्थ -

हम अग्नि बनें, घरों को उत्तम बनाएँ, सच्चे स्तोता बनें।
 

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