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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 436
ऋषिः - ऋण0त्रसदस्यू
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - द्विपदा विराट् पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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प꣡व꣢स्व सोम द्यु꣣म्नी꣡ सु꣢धा꣣रो꣢ म꣣हा꣡ꣳ अवी꣢꣯ना꣣म꣡नु꣢पू꣣र्व्यः꣢ ॥४३६॥
स्वर सहित पद पाठप꣡व꣢꣯स्व । सो꣣म । द्युम्नी꣢ । सु꣣धारः꣢ । सु꣣ । धारः꣢ । म꣣हा꣢न् । अ꣡वी꣢꣯नाम् । अ꣡नु꣢꣯ । पू꣣र्व्यः꣢ ॥४३६॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व सोम द्युम्नी सुधारो महाꣳ अवीनामनुपूर्व्यः ॥४३६॥
स्वर रहित पद पाठ
पवस्व । सोम । द्युम्नी । सुधारः । सु । धारः । महान् । अवीनाम् । अनु । पूर्व्यः ॥४३६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 436
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 9;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 9;
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विषय - ज्योति व अमरता
पदार्थ -
हे (सोम) = सोम! (अनु पवस्व) = तू हमारे जीवन को अनुकूलता से पवित्र कर । (द्युम्नी) = ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर हमारे मस्तिष्क को द्युतिमय - ज्योतिर्मय कर । (सुधा-र:) = हमें अमृतत्त्व देनेवाला हो। हम तेरा पान करनेवाले बनें और अमृत्त्व का लाभ करें। (महान्) = तेरे धारण से हमारे हृदय तुच्छता से दूर और विशालता से सम्पन्न हों। तू (अवीनाम् पूर्व्यः) = रक्षकों में सर्वप्रथम है। सोम की रक्षा होने पर रोग शरीर को पीड़ित नहीं कर सकते, इन्द्रियों को निर्बलता आक्रान्त नहीं कर पाती, मन ईर्ष्या-द्वेषवाला नहीं होता और बुद्धि कुण्ठता को प्राप्त नहीं होती। इस प्रकार यह सोम प्रत्येक कोश की रक्षा करनेवाला है। वस्तुतः सोम ही जीवन का आधारभूत तत्त्व है। इसी से जीवन का धारण व उत्थान होता है।
भावार्थ -
हम सोम की महिमा को समझें और उसके धारण को महत्त्व दें।
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