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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 447
ऋषिः - पृषध्रः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - द्विपदा गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
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अ꣡चे꣢त्य꣣ग्नि꣡श्चिकि꣢꣯तिर्हव्य꣣वाड्न꣢꣫ सु꣣म꣡द्र꣢थः ॥४४७॥

स्वर सहित पद पाठ

अ꣡चे꣢꣯ति । अ꣣ग्निः꣢ । चि꣡कि꣢꣯तिः । ह꣣व्यवा꣡ट् । ह꣣व्य । वा꣢ट् । न । सु꣣म꣡द्र꣢थः । सु꣣म꣢त् । र꣣थः ॥४४७॥


स्वर रहित मन्त्र

अचेत्यग्निश्चिकितिर्हव्यवाड्न सुमद्रथः ॥४४७॥


स्वर रहित पद पाठ

अचेति । अग्निः । चिकितिः । हव्यवाट् । हव्य । वाट् । न । सुमद्रथः । सुमत् । रथः ॥४४७॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 447
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 5; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 2; मन्त्र » 1
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 4; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

प्रभु अग्नि हैं। उनके सान्निध्य से जीव भी (अग्निः अचेति) = अग्निरूप में चैतन्य हो उठता है। ‘अग्निनाग्निः समिध्यते' प्रभु का उपासक उस महान् में आकर अग्निरूप में प्रज्वलित हो उठता है। (चिकितिः) = [कित निवासे रोगानयने च] यह उत्तम निवासवाला होता है और इसका शरीर रोगशून्य होता है। प्रभु के उपासक का मस्तिष्क यदि ज्ञानाग्नि के प्रकाशवाला होता है तो उसका शरीर ‘अनामय'=रोगशून्य होकर स्वास्थ्य की दीप्तिवाला होता है। (हव्यवाट् न) = हव्यों - सात्त्विक पदार्थों के वहन सेवन करनेवाले की भाँति यह प्रभुभक्त शरीर, मन व मस्तिष्क सभी में सत्त्वगुण प्रधान बनता है - स्वास्थ्य, नैर्मल्य व दीप्ति के रूप में सत्त्वगुण का परिणाम उसके जीवन में स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है | (सु-मद-रथः) = यह उत्तम हर्षयुक्त शरीररूप रथवाला होता है। इसका मनः- प्रसाद इसके वक्त्र को स्मितयुक्त बनाए रखता है। इसका प्रसन्न-वदन [smiling face] इसके अन्तः प्रसाद की सूचना देता है। यह अपने इस मनः–प्रसाद व मुस्कुराहट को चारों ओर से बखेरता है। इसीसे इसका नाम ‘पृषध्र' [पर्षते इति पृष:=one who sprinkles, धरति इतिध्रः] हो गया है। प्रभु के उपासक को पृषध्र होना ही चाहिए। यह पृषध्र 'सुमद्रथ' = स्वयं रममाण अर्थात् आत्मरति, आत्मक्रीड व आत्मतृप्त होता है - यह आनन्द के लिए बाह्य वस्तुओं पर निर्भर नहीं करता [ सुमत् - स्वयं ] । 

भावार्थ -

अग्नि के सम्पर्क में आकर मैं भी अग्नि बन जाऊँ। आत्मानन्द का अनुभव करते हुए सब बाह्य आनन्द इसके लिए तुच्छ हो जाते हैं।
 

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