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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 51
ऋषिः - सौभरि: काण्व: देवता - अग्निः छन्दः - बृहती स्वरः - मध्यमः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣡ दैवो꣢꣯दासो अ꣣ग्नि꣢र्दे꣣व꣢꣫ इन्द्रो꣣ न꣢ म꣣ज्म꣡ना꣢ । अ꣡नु꣢ मा꣣त꣡रं꣢ पृथि꣣वीं꣡ वि वा꣢꣯वृते त꣣स्थौ꣡ नाक꣢꣯स्य꣣ श꣡र्म꣢णि ॥५१॥

स्वर सहित पद पाठ

प्र꣢ । दै꣡वो꣢꣯दासः । दै꣡वः꣢꣯ । दा꣣सः । अग्निः꣢ । दे꣣वः꣢ । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । न । म꣣ज्म꣡ना꣢ । अ꣡नु꣢꣯ । मा꣣त꣡र꣢म् । पृ꣣थिवी꣢म् । वि । वा꣣वृते । तस्थौ꣢ । ना꣡क꣢꣯स्य । श꣡र्म꣢꣯णि ॥५१॥


स्वर रहित मन्त्र

प्र दैवोदासो अग्निर्देव इन्द्रो न मज्मना । अनु मातरं पृथिवीं वि वावृते तस्थौ नाकस्य शर्मणि ॥५१॥


स्वर रहित पद पाठ

प्र । दैवोदासः । दैवः । दासः । अग्निः । देवः । इन्द्रः । न । मज्मना । अनु । मातरम् । पृथिवीम् । वि । वावृते । तस्थौ । नाकस्य । शर्मणि ॥५१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 51
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5;
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पदार्थ -

१. (मातरं पृथिवीं अनु) = इस भूमिमाता पर रहने के पश्चात् (वि वावृते) = लौट जाता है और (नाकस्य)=मोक्षलोक के (शर्मणि) = सुख में (तस्थौ) = ठहरता है। मन्त्र के उत्तरार्ध से यह स्पष्ट है कि जीव का पृथिवी पर निवास अस्थायी है, उसे यहाँ से लौटना है। जैसेकि यात्रा में प्रवास से लौटकर मनुष्य फिर घर में आता है, उसी प्रकार यह पृथिवीवास हमारा प्रवास है, यहाँ से हमें लौटना है। हमारा वास्तविक घर तो ब्रह्मलोक है, जहाँ हम यात्रा के सब कष्टों से मोक्ष पाकर आनन्द में ठहरेंगे।

यह जीवन जब यात्रारूप है तो यात्रा के दो सिद्धान्तों का हमें ध्यान रखना चाहिए। १. यात्रा में मनुष्य अधिक-से-अधिक हल्का रहना चाहता है, क्योंकि यात्रा में अधिक बोझ रुकावट बनता है, अतः हमें भी जीवन यात्रा में बहुत बड़े-बड़े मकान, ट्रंक व अनावश्यक समान नहीं जुटाना है। २. यात्रा में आदमी आराम को ध्येय न बनाकर कुछ कष्ट से जैसे-तैसे गुज़ारा कर लेता है। हमारा भी जीवन यात्रा का ध्येय आराम न होकर आ-श्रम [exertion] परिश्रम हो तभी हमारी यात्रा पूर्ण होगी और हम मोक्ष-सुख को प्राप्त करने के लिए अपने घर ब्रह्मलोक में पहुँच सकेंगे। यह कैसे हो? इसका उत्तर इस प्रकार देते हैं—

१. (दैवोदासः)=देव का सेवक । हमें प्रभु का उपासक बनना है, नकि प्रकृति का दास। प्रभु के सेवक के उठने-बैठने में यह विशेषता होती है कि वह स्वाद के लिए न खाकर शरीर-धारण के लिए खाता है, वह आमोद-प्रमोद के लिए ज्ञानेन्द्रियों का प्रयोग न करके उनके द्वारा ज्ञान प्राप्त करता है ।

२. (अग्निः) = अग्रे - णी: । अपने को आगे पहुँचानेवाला । हमारे जीवन का यह सूत्र हो कि हमें शरीर, मन व बुद्धि तीनों दृष्टिकोणों से आगे बढ़ना है। हमारा शरीर अधिक स्वस्थ बने, मन अधिक विशाल व बुद्धि अधिक तीव्र हो ।

३. (देव:) = [दिवु-क्रीडा] हम संसार को क्रीड़ामय समझें, तभी हम चोटों को हँसते हुए सहेंगे और चोट लगानेवाले से खिझेंगे नहीं।

४. (इन्द्रो न)= [न= इव, इदि परमैश्वर्ये] हम प्रभु के समान परमैश्वर्यवाले बनें। उस प्रभु का अन्तिम ऐश्वर्य 'सहोऽसि' सहनशीलता है। मैं भी उसके समान तेजस्वी बनूँ, परन्तु यह होगा कैसे ? (प्रमज्मना)=प्रकर्षेण उसमें लीन हो जाने के द्वारा । मस्ज् - Merge = लीन हो जाना। जैसे लोहे का गोला अग्नि में लीन होकर अग्निमय हो जाता है, उसी प्रकार उस परमैश्वर्यवाले में लीन होकर हम भी तन्मय हो जाएँ। इस प्रकार इस यात्रा को उत्तम प्रकार से पूरा करनेवाले हम इस मन्त्र के ऋषि ‘सोभरि' होंगे।

भावार्थ -

यह जीवन एक यात्रा है- इसे पूर्ण करने के लिए १. हम प्रभु - भक्त बनें, २. हमारे जीवन का सूत्र आगे बढ़ना हो, ३. हमारे अन्दर खिलाड़ी की आदर्श मनोवृत्ति हो, ४. हम सदा खाते-पीते, सोते-जागते, उठते-बैठते अपने को प्रभुमय बनाये रक्खें। इस प्रकार यात्रा को पूर्णकर हम मोक्षसुख में स्थित होंगे।

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