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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 544
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
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अ꣣पा꣢मि꣣वे꣢दू꣣र्म꣣य꣣स्त꣡र्त्तुराणाः꣢ प्र꣡ म꣢नी꣣षा꣡ ई꣢रते꣣ सो꣢म꣣म꣡च्छ꣢ । न꣣मस्य꣢न्ती꣣रु꣡प꣢ च꣣ य꣢न्ति꣣ सं꣡ चाच꣢꣯ विशन्त्युश꣣ती꣢रु꣣श꣡न्त꣢म् ॥५४४॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣पा꣢म् । इ꣣व । इ꣢त् । ऊ꣣र्म꣡यः꣢ । त꣡र्त्तु꣢꣯राणाः । प्र । म꣣नीषाः꣢ । ई꣣रते । सो꣡म꣢꣯म् । अ꣡च्छ꣢꣯ । न꣣मस्य꣡न्तीः꣢ । उ꣡प꣢꣯ । च꣣ । य꣡न्ति꣢꣯ । सम् । च꣣ । आ꣢ । च꣣ । विशन्ति । उशतीः꣢ । उ꣣श꣡न्त꣢म् ॥५४४॥
स्वर रहित मन्त्र
अपामिवेदूर्मयस्तर्त्तुराणाः प्र मनीषा ईरते सोममच्छ । नमस्यन्तीरुप च यन्ति सं चाच विशन्त्युशतीरुशन्तम् ॥५४४॥
स्वर रहित पद पाठ
अपाम् । इव । इत् । ऊर्मयः । तर्त्तुराणाः । प्र । मनीषाः । ईरते । सोमम् । अच्छ । नमस्यन्तीः । उप । च । यन्ति । सम् । च । आ । च । विशन्ति । उशतीः । उशन्तम् ॥५४४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 544
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 5; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 7;
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विषय - ज्ञातुं - द्रष्टुं - प्रवेष्टुं च [ ज्ञान-दर्शन- प्रवेश ]
पदार्थ -
प्रभु को सेनापति बनाने पर (अपाम् ऊर्मयः इव) = जलों की तरंगों के समान (मनीषा:) = बुद्धियाँ (तर्तुराणा:) = सब विघ्न-बाधाओं की हिंसा करती हुई [तुर्वि हिंसायाम्] अथवा त्वरा से कार्यों को सिद्ध करती हुई [त्वर] (इत्) = निश्चय से (सोमम् अच्छ) = उस प्रभु की ओर हमें (प्र ईरते) = प्रकर्षेण प्रेरित करती है। बुद्धियों के द्वारा ही हमें ज्ञान प्राप्त होता है, मन का शासन करनेवाली बुद्धि हमें प्रभु प्रवण करती हैं। ज्ञान के बढ़ने के साथ ज्युं-ज्युं हम उस महान प्रभु की महिमा को सर्वत्र व्याप्त देखते हैं तो हमें कण-कण में उस प्रभु की सत्ता का आभास होने लगता है—इस दर्शन का ही परिणाम होता है कि (नमस्यन्तीः) = उस प्रभु के प्रति हम नतमस्तक होते हैं। (उप च यन्ति) = और अब हम उस प्रभु की ओर चल देते हैं। इस मार्ग पर आगे बढ़ते हुए भक्त एक दिन (समाविशन्ति) = उस प्रभु में प्रवेश कर जाते हैं। नष्ट नहीं होते तद्रूप हो जाते हैं। प्रभु से इनका भेद नहीं रहता । भेद में ही तो भय है - ये अभय स्थिति में पहुँच जाते हैं। पहुँचते तभी हैं यदि (उशती:) = उस प्रभु की प्राप्ति की प्रबल कामनावाले बने रहते हैं। ये उस प्रभु को पाते हैं जोकि (उशन्तम्) सदा अपने प्रिय मित्र जीव का भला चाहते हैं। प्रभु तो हमारे कल्याण चाहते ही हैं उसके लिए सब आवश्यक साधन भी जुटा देते हैं। हमारी ही कामना प्रबल नहीं होती तो हम उस प्रभु के मेल से वञ्चित रह जाते हैं। प्रभुप्राप्ति के मार्ग पर चाहे हम धीमे-धीमे बढ़ें- रुकें नहीं तो लक्ष्य तक पहुँचेंगे ही। कण-कण करके आगे बढ़नेवाला यह ‘प्रस्कण्व' प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि है। थोड़ा-थोड़ा संग्रह करते चलना ही मेधाविता भी तो है— इसलिए भी यह प्रस्कण्व मेधावी कहलाया है। उपदेशों से हमें प्रभु का ज्ञान होता है–तप, स्वाध्याय व ईश्वर - प्राणिधान से उसका दर्शन होता है और अन्त में विषयों के प्रति पूर्ण अरुचि तथा प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामना से प्रभु से मेल होता है।
भावार्थ -
हमारे जीवनों में भी यही ज्ञान-दर्शन व प्रवेश [मेल] का क्रम सतत चलता चले।
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