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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 6
ऋषिः - सुदीतिपुरुमीढावाङ्गिरसौ तयोर्वान्यतरः
देवता - अग्निः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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त्वं꣡ नो꣢ अग्ने꣣ म꣡हो꣢भिः पा꣣हि꣡ विश्व꣢꣯स्या꣣ अ꣡रा꣢तेः । उ꣣त꣢ द्वि꣣षो꣡ मर्त्य꣢꣯स्य ॥६॥
स्वर सहित पद पाठत्व꣢म् । नः꣢ । अग्ने । म꣡हो꣢꣯भिः । पा꣣हि꣢ । वि꣡श्व꣢꣯स्य । अ꣡रा꣢꣯तेः । अ । रा꣣तेः । उत꣢ । द्वि꣣षः꣢ । म꣡र्त्य꣢꣯स्य ॥६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं नो अग्ने महोभिः पाहि विश्वस्या अरातेः । उत द्विषो मर्त्यस्य ॥६॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वम् । नः । अग्ने । महोभिः । पाहि । विश्वस्य । अरातेः । अ । रातेः । उत । द्विषः । मर्त्यस्य ॥६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 6
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 1;
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विषय - दो दोषों से दूर
पदार्थ -
हे (अग्ने त्वम्)=प्रभो! आप (नः) = हमें (विश्वस्या:) = सब (अरातेः )= अदान की भावना से (उत)= और मर्त्यस्य=मनुष्य के (द्विषः) = [द्वेषणं द्विट्] द्वेष से (महोभिः) = तेजस्विता के द्वारा (पाहि)-बचाओ।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है। उसके सामाजिक जीवन में दो बड़े दोष आ जाते हैं - एक 'अदान' की भावना और दूसरा 'द्वेष'। यदि मनुष्य में देने की वृत्ति न हो तो किसी भी सामाजिक कार्य का होना सम्भव न हो । सारी सामाजिक उन्नति दान की वृत्ति पर ही निर्भर है।
जिस प्रकार अदान की वृत्ति समाज के लिए घातक है उसी प्रकार द्वेष की । द्वेष में मनुष्य की शक्ति अपने उत्थान में न लगकर दूसरे के पतन में लगती है। द्वेष में हम दूसरे से प्रीति न कर वैर ठान लेते हैं।
इन दोनों अदान और द्वेषरूप सामाजिक दोषों से ऊपर उठने का उपाय महोभिः शब्द से सूचित हो रहा है। महस् का अर्थ है तेजस्विता | तेजस्वी पुरुष इन वृत्तियों को आत्मसम्मान की भावना से विपरीत समझता है, इसलिए इनसे दूर रहता है।
प्रभुकृपा से हम ‘सुदीति' खूब दान देनेवाले तथा 'पुरुमीढ' द्वेष न करके सुखों के सेचन करनेवाले बनें। ये ही दोनों इस मन्त्र के ऋषि हैं।
भावार्थ -
हम तेजस्वी बनकर अदान व द्वेष से दूर हों। तभी हम समाज व राष्ट्र को स्वर्ग बना सकेंगे।
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