Loading...

सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 612
ऋषिः - हिरण्यस्तूप आङ्गिरसः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
12

इ꣡न्द्र꣢स्य꣣ नु꣢ वी꣣꣬र्या꣢꣯णि꣣ प्र꣡वो꣢चं꣣ या꣡नि꣢ च꣣का꣡र꣢ प्रथ꣣मा꣡नि꣢ व꣣ज्री꣢ । अ꣢ह꣣न्न꣢हि꣣म꣢न्व꣣प꣡स्त꣢तर्द꣣ प्र꣢ व꣣क्ष꣡णा꣢ अभिन꣣त्प꣡र्व꣢तानाम् ॥६१२॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯स्य । नु । वी꣣र्या꣢꣯णि । प्र । वो꣣चम् । या꣡नि꣢꣯ । च꣣का꣡र꣢ । प्र꣣थमा꣡नि꣢ । व꣣ज्री꣢ । अ꣡ह꣢꣯न् । अ꣡हि꣢꣯म् । अ꣡नु꣢꣯ । अ꣣पः꣢ । त꣣तर्द । प्र꣢ । व꣣क्ष꣡णाः꣢ । अ꣣भिनत् । प꣡र्व꣢꣯तानाम् ॥६१२॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्रस्य नु वीर्याणि प्रवोचं यानि चकार प्रथमानि वज्री । अहन्नहिमन्वपस्ततर्द प्र वक्षणा अभिनत्पर्वतानाम् ॥६१२॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्रस्य । नु । वीर्याणि । प्र । वोचम् । यानि । चकार । प्रथमानि । वज्री । अहन् । अहिम् । अनु । अपः । ततर्द । प्र । वक्षणाः । अभिनत् । पर्वतानाम् ॥६१२॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 612
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 3; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 3;
Acknowledgment

पदार्थ -

प्रस्तुत मन्त्र का ऋषि 'हिरण्यस्तूप आङ्गिरस' है। 'हिरण्यं वै वीर्यम्'- हिरण्य वीर्यशक्ति का नाम है–उसकी ऊर्ध्वगति करनेवाला 'हिरण्यस्तूप' वीर्य की ऊर्ध्वगति के कारण ही एक-एक अंग में रसवाला है–'आङ्गिरस' है। यह कहता है कि मैं (नु) = अब (इन्द्रस्य) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के (वीर्याणि) = शक्तिशाली कर्मों का (प्रवोचम्) = प्रवचन करता हूँ। (यानि) = जिन कर्मों को, जो (प्रथमानि) =  अत्यन्त विस्तारवाले हैं- स्वार्थ के दृष्टिकोण से नहीं किये गये, (वज्री) = वज्रतुल्य दृढ़ शरीरवाले हिरण्यस्तूप ने (चकार) = किया है। जितेन्द्रिय बनकर जीव वज्रतुल्य दृढ़ शरीरवाला बनता है [वज्री], इसके कर्म स्वार्थ से कुछ ऊपर उठे हुए होते हैं [प्रथमानि], साथ ही इसके कर्म शक्तिशाली [वीर्याणि] होते हैं।

१. पहला कर्म तो इसने यह किया कि (अहिम् अहन्) = अहि को मार डाला। अहि का सामान्य अर्थ सर्प है- इसने सर्प को मार डाला। सर्प कुटिलवृत्ति का प्रतीक है। इसने अपने से कुटिलवृत्ति को दूर कर दिया।

२. (अनु) = इसके पश्चात् इसने (अ-पः) = [न पाति] न रक्षा करनेवाले दुष्ट मन को [अजित मन को] (ततर्द) = नष्ट कर दिया। ('अनात्मवस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत्') = अजित मन हमारा शत्रु=Shatterer हो जाता है । इस हिरण्यस्तूप ने नष्ट करनेवाले [अ-प] दुष्ट मन का दमन कर दिया। सरल मार्ग पर चलने के लिए दुष्ट मन का दमन आवश्यक ही हैं।

३. दुष्ट मन के दमन के लिए इसने (पर्वतानाम्) = पाँच पर्वोंवाली अविद्या के (वक्षणाः) = प्रवाहों को (प्र अभिनत्) = विदीर्ण कर दिया है। अविद्या के नष्ट होने पर ही वासना नष्ट होगी- दुष्ट मन का दलन हो पाएगा।

भावार्थ -

मैं कुटिलता का, दुष्ट मन का तथा पञ्चपर्वोंवाली अविद्या का नाश करके सरल, सुमन तथा सु - यज्ञ बनता हूँ।

इस भाष्य को एडिट करें
Top