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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 626
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - गावः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
11
स꣣ह꣡र्ष꣢भाः स꣣ह꣡व꣢त्सा उ꣣दे꣢त꣣ वि꣡श्वा꣢ रू꣣पा꣢णि꣣ बि꣡भ्र꣢तीर्द्व्यूध्नीः । उ꣣रुः꣢ पृ꣣थु꣢र꣣यं꣡ वो꣢ अस्तु लो꣣क꣢ इ꣣मा꣡ आपः꣢꣯ सुप्रपा꣣णा꣢ इ꣣ह꣡ स्त ॥६२६
स्वर सहित पद पाठस꣣ह꣡र्ष꣢भाः । स꣣ह꣢ । ऋ꣣षभाः । सह꣡व꣢त्साः । स꣣ह꣢ । व꣣त्साः । उदे꣡त꣢ । उ꣣त् । ए꣡त꣢꣯ । वि꣡श्वा꣢꣯ । रू꣣पा꣡णि꣢ । बि꣡भ्र꣢꣯तीः । द्व्यू꣣ध्नीः । द्वि । ऊध्नीः । उरुः꣢ । पृ꣣थुः꣢ । अ꣣य꣢म् । वः꣣ । अस्तु । लोकः꣢ । इ꣣माः꣢ । आ꣡पः꣢꣯ । सु꣣प्रपाणाः꣢ । सु꣣ । प्रपाणाः꣢ । इ꣣ह꣢ । स्त꣣ ॥६२६॥
स्वर रहित मन्त्र
सहर्षभाः सहवत्सा उदेत विश्वा रूपाणि बिभ्रतीर्द्व्यूध्नीः । उरुः पृथुरयं वो अस्तु लोक इमा आपः सुप्रपाणा इह स्त ॥६२६
स्वर रहित पद पाठ
सहर्षभाः । सह । ऋषभाः । सहवत्साः । सह । वत्साः । उदेत । उत् । एत । विश्वा । रूपाणि । बिभ्रतीः । द्व्यूध्नीः । द्वि । ऊध्नीः । उरुः । पृथुः । अयम् । वः । अस्तु । लोकः । इमाः । आपः । सुप्रपाणाः । सु । प्रपाणाः । इह । स्त ॥६२६॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 626
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 4; मन्त्र » 12
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 4;
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विषय - सात्त्विक गोदुग्ध का सेवन
पदार्थ -
गत मन्त्र की प्रार्थना को कार्यान्वित करने के लिए 'वामदेव गौतम' प्रस्तुत मन्त्र में उत्तम गौवों के अभ्युदय का उल्लेख करता है जिससे उसके दुग्धादि सेवन से सात्त्विक ज्ञान व सात्त्विक भक्ति का विकास हो। यह प्रार्थना करता है कि हे गौवो! (सहर्षभाः) = उत्तम ऋषभों-बैलोंसहित तथा (सहवत्साः) = उत्तम बछड़ों के साथ (उदेत) = उदय को प्राप्त होओ। गौवों की उत्तम नस्ल के लिए उत्तम बैलों की आवश्यकता अवश्य ही है। गौवों में दुग्ध प्रवर्त्तन ठीक होता रहे उसके लिए बछड़ों का होना आवश्यक है। हे गौवो! आप (विश्वारूपाणि) = सब मनुष्यों को–प्राणियों को (बिभ्रती) = धारण करती हुई (ट्र्यूनी:) = दुगने ऊधस्वाली उदित होओ। गौओं का दूध पूर्ण भोजन के रूप में बहुत उत्तम प्रकार से सब मनुष्यों का धारण करता है और यदि हम गौवों का उचित ध्यान करें तो वे दुगना दूध देनेवाली हो जाती हैं अर्थात् उनका दूध पर्याप्त मात्रा में बढ़ाया जा सकता है। इनका दूध बढ़ाने के लिए यह आवश्यक है कि कहते हैं कि हे गौवो! (वः) = तुम्हारा इन्हें सदा घर में ही न बाँधे रक्खा जाए । मन्त्र में (अयम्) = यह (उरुः) = विशाल (पृथुः) = विस्तृत (लोकः) = लोक (अस्तु) = हो । खुले आकाश में, शुद्ध भ्रमण करनेवाली गौवों का दूध अधिक प्राणशक्तिवाला होता है। इन गौवों को पीने के लिए पानी भी अत्यन्त शुद्ध मिलना चाहिए। (सुप्रपाणा) = सुख से पीने योग्य (इमाः आपः) = ये उत्तम जल (इह स्त) = यहाँ हो ।
भावार्थ -
मानव उत्कर्ष के लिए गौवों का उत्कर्ष आवश्यक है।
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