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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 637
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - सूर्यः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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ये꣡ना꣢ पावक꣣ च꣡क्ष꣢सा भु꣣रण्य꣢न्तं꣣ ज꣢ना꣣ꣳ अ꣡नु꣢ । त्वं꣡ व꣢रुण꣣ प꣡श्य꣢सि ॥६३७॥
स्वर सहित पद पाठये꣡न꣢꣯ । पा꣣वक । च꣡क्ष꣢꣯सा । भु꣣रण्य꣡न्त꣢म् । ज꣡ना꣢꣯न् । अ꣡नु꣢꣯ । त्वम् । व꣣रुण । प꣡श्य꣢꣯सि ॥६३७॥
स्वर रहित मन्त्र
येना पावक चक्षसा भुरण्यन्तं जनाꣳ अनु । त्वं वरुण पश्यसि ॥६३७॥
स्वर रहित पद पाठ
येन । पावक । चक्षसा । भुरण्यन्तम् । जनान् । अनु । त्वम् । वरुण । पश्यसि ॥६३७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 637
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 5; मन्त्र » 11
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 5;
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विषय - प्रभु कौन-सी आँख से दीखता है?
पदार्थ -
प्रभु प्रस्कण्व से कहते हैं कि-हे (पावक) = अपने जीवन को पवित्र करनेवाले! (वरुण) = अपने को व्रतों के बन्धनों में बाँधनेवाले [पाशी] और इस प्रकार अपने को श्रेष्ठ बनानेवाले प्रस्कण्व! (त्वम्) = तू (येन) = जिस (चक्षसा) = दृष्टि से (जनान् अनुपश्यसि) = मनुष्यों के हित का ध्यान करता है [looks after=अनुपश्यसि], उसी दृष्टि से तू (भुरण्यन्तम्) = सभी के भरण करनेवाले उस प्रभु को (पश्यसि) = देख पाता है। जिस दृष्टि से तू लोकों के हित का ध्यान करता है, वही दृष्टि तुझे प्रभु-दर्शन के योग्य बनाती है। 'अनु'='पीछे' यह शब्द स्पष्ट कर रहा है कि पहले ‘लोकहित' और पीछे 'प्रभु-दर्शन' । यदि मनुष्य लोकहित में प्रवृत्त नहीं होता तो वह प्रभु-दर्शन भी नहीं कर पाता।
इससे भी महत्त्वपूर्ण बात यह है कि यह प्रभु को 'भुरण्यन्तम्'-पालन करनेवाले के रूप में देखता है और अनुभव करता है कि भरण तो सभी का प्रभु कर रहे हैं। मैं तो बीच मे निमित्तमात्र बनता हूँ। इस निमित्त बन सकने के लिए आवश्यक है कि १. मैं पावक बनूँ-अपने जीवन को पवित्र बनाऊँ और २. वरुण बनूँ- व्रतों के बन्धनों में अपने को बाँधकर अपने जीवन को श्रेष्ठ बनाऊँ। वरुण 'प्रचेता:' है- प्रकृष्ट ज्ञानवाला बनकर मैं वरुण बनूँगा और तब निष्कामभाव से लोकहित में प्रवृत्त हुआ हुआ प्रभु - दर्शन कर पाऊँगा।
भावार्थ -
लोकहित का ध्यान करनेवाली दृष्टि ही प्रभु का दर्शन कराती है।
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