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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 645
ऋषिः - प्रजापतिः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
काण्ड नाम - 0
7
यो꣢꣯ मꣳहि꣢꣯ष्ठो मघोनामꣳशुर्न शोचिः । चि꣡कि꣢त्वो अ꣣भि꣡ नो꣢ न꣣ये꣡न्द्रो꣢ विदे꣢꣯ तमु꣢꣯ स्तुहि ॥६४५
स्वर सहित पद पाठयः꣢ । मँ꣡हि꣢꣯ष्ठः । म꣣घो꣡ना꣢म् । अँ꣣शुः꣢ । न । शो꣣चिः꣢ । चि꣡कि꣢꣯त्वः । अ꣣भि꣢ । नः꣣ । नय । इ꣡न्द्रः꣢꣯ । वि꣣दे꣢ । तम् । उ꣣ । स्तुहि ॥६४५॥
स्वर रहित मन्त्र
यो मꣳहिष्ठो मघोनामꣳशुर्न शोचिः । चिकित्वो अभि नो नयेन्द्रो विदे तमु स्तुहि ॥६४५
स्वर रहित पद पाठ
यः । मँहिष्ठः । मघोनाम् । अँशुः । न । शोचिः । चिकित्वः । अभि । नः । नय । इन्द्रः । विदे । तम् । उ । स्तुहि ॥६४५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 645
(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 5
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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(कौथुम) महानाम्न्यार्चिकः » प्रपाठक » ; अर्ध-प्रपाठक » ; दशतिः » ; मन्त्र » 5
(राणानीय) महानाम्न्यार्चिकः » अध्याय » ; खण्ड » ;
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विषय - दाता ही चमकता है
पदार्थ -
(यः) = जो (मघोनाम्) = ऐश्वर्यशालियों में (मंहिष्ठः) = सर्वाधिक दान देनेवाला है, वही (अंशुः नः) = सूर्य-किरणों के समान (शोचिः) = चमकवाला होता है। धन स्वयं चमकीला है इसकी चमक से मनुष्य मुग्ध होकर इसे जुटाने में जुट जाता है। इसे जुटाकर वह अपनी चमक को मध्यम कर लेता है। उससे सत्य का स्वरूप छिप जाता है। कृपण धनी की क्या संसार में कोई शोभा रहती है? हाँ, धनी बनकर यदि वह खूब देनेवाला बनता है तो वह चमकने लगता है। ('जुहोत प्र च तिष्ठत )= दान दो और शोभा पाओ। दान के अनुपात में ही शोभा बढ़ती है। यह दातृतम बनता है और सूर्य - किरणों के समान चमकने लगता है।
अब यह प्रकृति के पीछे भागते रहने को ठीक नहीं समझता और प्रार्थना करता है कि हे (चिकित्वः) = ज्ञान - सम्पन्न गुरो ! (नः) = हमें (अभिनय) = धर्म के मार्ग की ओर ले चलो। इसकी इस प्रार्थना पर गुरु उसे कहते हैं कि (इन्द्रः) = प्रभु ही (विदे) = ज्ञानी हैं (तम् उ स्तुहि) = उसकी ही स्तुति करो। मुझे प्रभु जितना मार्ग दिखाएँगे, मैं तो उतना ही तुम्हारा पथप्रदर्शन कर पाऊँगा। अन्त में सभी के मार्ग-दर्शक वे प्रभु ही हैं।
भावार्थ -
प्रभुकृपा से हम उत्तम मार्गदर्शक पाकर धनों की ममता से ऊपर उठें।
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