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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 691
ऋषिः - मधुच्छन्दा वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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व꣣रिवोधा꣡त꣢मो भुवो꣣ म꣡ꣳहि꣢ष्ठो वृत्र꣣ह꣡न्त꣢मः । प꣢र्षि꣣ रा꣡धो꣢ म꣣घो꣡ना꣢म् ॥६९१॥

स्वर सहित पद पाठ

वरिवोधा꣡त꣢मः । व꣣रिवः । धा꣡त꣢꣯मः । भु꣣वः । म꣡ꣳहि꣢꣯ष्ठः । वृ꣣त्र꣡हन्त꣢मः । वृ꣣त्र । ह꣡न्त꣢꣯मः । प꣡र्षि꣢꣯ । रा꣡धः꣢꣯ । म꣣घो꣡ना꣢म् ॥६९१॥


स्वर रहित मन्त्र

वरिवोधातमो भुवो मꣳहिष्ठो वृत्रहन्तमः । पर्षि राधो मघोनाम् ॥६९१॥


स्वर रहित पद पाठ

वरिवोधातमः । वरिवः । धातमः । भुवः । मꣳहिष्ठः । वृत्रहन्तमः । वृत्र । हन्तमः । पर्षि । राधः । मघोनाम् ॥६९१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 691
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 15; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 5; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

यह सोम ‘वरिवो-धा-तम' है, उत्तमोत्तम धनों को अतिशेयन धारण करनेवाला है। इसने शरीर को 'वज्रतुल्य दृढ़ता', मन को 'निर्मलता' तथा बुद्धि को 'तीव्रता' प्राप्त करायी है। ये ही मानव के सर्वोत्तम धन हैं । मधुछन्दाः कहता है कि हे सोम! तू (वरिवोधातमः भुवः) = उत्तम धनों का देनेवाला होता है। इन्हीं से तो मनुष्य ‘धन्य' बनता है । (मंहिष्ठ:) = तू दातृतम है । इन धनों को खूब देता है और (वृत्रहन्तम:) = ज्ञान को आवृत करनेवाली [वृत्र] इन वासनाओं को पूर्णरूप से नष्ट करनेवाला है। वासनाएँ ही मनुष्य के उन्नति - मार्ग में रुकावटें हुआ करती हैं, इन्हीं के कारण मनुष्य अपने कार्यों में सफल नहीं हुआ करता, परन्तु जब सोम-रक्षा के द्वारा मनुष्य इनपर विजय पा लेता है, तब इन (मघोनाम्) = इन्द्रों – वासनारूप असुरों को नष्ट करनेवालों की राधः-सिद्धि को, सफलता को [राध्=सिद्धि] (पर्षि) = तू पूर्ण करता है । [पृ=To complete]। वीर्यवान् पुरुष सिद्धि=सफलता प्राप्त करते हैं ।

भावार्थ -

वीर्य-रक्षा द्वारा शरीर की दृढ़ता, मन की निर्मलता व बुद्धि की तीव्रता आदि उत्तम धनों को प्राप्त करके, सिद्धि की विनरूप वासनाओं को विनष्ट करके हम सदा सिद्धि को प्राप्त करनेवाले बनें ।

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