Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 709
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - इन्द्रः
छन्दः - काकुभः प्रगाथः (विषमा ककुप्, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
3
उ꣡प꣢ त्वा꣣ क꣡र्म꣢न्नू꣣त꣢ये꣣ स꣢ नो꣣ यु꣢वो꣣ग्र꣡श्च꣢क्राम꣣ यो꣢ धृ꣣ष꣢त् । त्वा꣡मिध्य꣢꣯वि꣣ता꣡रं꣢ व꣣वृ꣢म꣣हे स꣡खा꣢य इन्द्र सान꣣सि꣢म् ॥७०९॥
स्वर सहित पद पाठउ꣡प꣢꣯ । त्वा꣣ । क꣡र्म꣢꣯न् । ऊ꣣त꣡ये꣢ । सः । नः꣣ । यु꣡वा꣢꣯ । उ꣣ग्रः꣢ । च꣣क्राम । यः꣢ । धृ꣣ष꣢त् । त्वाम् । इत् । हि । अ꣣विता꣡र꣢म् । व꣣वृम꣡हे꣢ । स꣡खा꣢꣯यः । स । खा꣣यः । इन्द्र । सानसि꣣म् ॥७०९॥
स्वर रहित मन्त्र
उप त्वा कर्मन्नूतये स नो युवोग्रश्चक्राम यो धृषत् । त्वामिध्यवितारं ववृमहे सखाय इन्द्र सानसिम् ॥७०९॥
स्वर रहित पद पाठ
उप । त्वा । कर्मन् । ऊतये । सः । नः । युवा । उग्रः । चक्राम । यः । धृषत् । त्वाम् । इत् । हि । अवितारम् । ववृमहे । सखायः । स । खायः । इन्द्र । सानसिम् ॥७०९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 709
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 6; सूक्त » 3; मन्त्र » 2
Acknowledgment
विषय - प्रभु का स्मरण करते हुए युद्ध कर
पदार्थ -
(कर्मन्) = कर्म करते हुए हम (त्वा उप) = तेरे समीप स्थित होते हैं। क्यों? (ऊतये) = अपनी रक्षा के लिए। यह संसार चक्की के दो पाटों के समान है। इसमें व्यक्ति प्रभुरूपी कीली से दूर हुआ और पिसा।'हमारा प्रत्येक कर्म पवित्र बना रहे, कोई प्रलोभन हमें अपना शिकार न बना लें' इसके लिए आवश्यक है कि हम प्रभु के समीप बने रहें । प्रभु का स्मरण करें और संसार में अपने युद्ध को जारी
रक्खें । (सः) = वह प्रभु ही (नः) = हमें (युवा) = बुराइयों से पृथक् रखनेवाले हैं [यु=अमिश्रण] (उग्रः) = बड़े शक्तिशाली व हमारे कार्य को पूर्ण करनेवाले हैं [उग्र=Ready to do any work] । इस युद्ध में (यः धृषत्) = जो भी हमारा धर्षण करता है, उसे प्रभु (चक्राम) = पाँवों तले रौंद देते हैं । वस्तुतः प्रभु के बिना क्या हम इन वासनाओं को कभी कुचल सकेंगे? सब विजय, सब विभूति, सब ऐश्वर्य उस प्रभु का ही है। हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली प्रभो! हम (त्वाम् इत् हि) = आपको ही निश्चय से (अवितारम्) = रक्षक (ववृमहे) = वरते हैं ।
प्रभु के वरने का प्रकार क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर मन्त्र के 'सखाय: ' शब्द में मिल रहा है । (सखायः) = समानख्याना: = कुछ प्रभु - जैसे प्रतीत होते हुए । प्रभु-जैसे बनने का प्रयत्न करते हुए ही पुरुष को प्रभु के वरण का अधिकार है । यहाँ यह नहीं हो सकता कि प्रभु को कार्य सौंपा और हमें मिल गई । पुरुषार्थ के उपरान्त ही प्रार्थना की सार्थकता है ।
छुट्टी ‘वे प्रभु कैसे हैं?’ (सानसिम्) = उचित संविभाग करनेवाले हैं [षण्=संभक्तौ] । हमें भी यह संविभाग का पाठ सीखना है। वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचाना है तो यह पाठ पढ़ना आवश्यक है, बिना इस पाठ के पढ़े लोभ की वृत्ति पनपती है और व्यसन-वृक्ष फूलता-फलता है।
भावार्थ -
हमारा प्रत्येक कर्म प्रभु-स्मरण के साथ हो ।
इस भाष्य को एडिट करें