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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 746
ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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इ꣡न्द्र꣢ सु꣣ते꣢षु꣣ सो꣣मे꣢षु꣣ क्र꣡तुं꣢ पुनीष उ꣣꣬क्थ्य꣢꣯म् । वि꣣दे꣢ वृ꣣ध꣢स्य꣣ द꣡क्ष꣢स्य म꣣हा꣢ꣳ हि षः ॥७४६॥

स्वर सहित पद पाठ

इ꣡न्द्र꣢꣯ । सु꣣ते꣡षु꣢ । सो꣡मे꣢꣯षु । क्र꣡तु꣢꣯म् । पु꣣नीषे । उ꣣क्थ्य꣢꣯म् । वि꣣दे꣢ । वृ꣣ध꣡स्य꣢ । द꣡क्ष꣢꣯स्य । म꣣हा꣢न् । हि । सः ॥७४६॥


स्वर रहित मन्त्र

इन्द्र सुतेषु सोमेषु क्रतुं पुनीष उक्थ्यम् । विदे वृधस्य दक्षस्य महाꣳ हि षः ॥७४६॥


स्वर रहित पद पाठ

इन्द्र । सुतेषु । सोमेषु । क्रतुम् । पुनीषे । उक्थ्यम् । विदे । वृधस्य । दक्षस्य । महान् । हि । सः ॥७४६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 746
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 1
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पदार्थ -

इस मन्त्र का ऋषि ‘नारद काण्व' है। ‘नरस्येदं नारम्' इस व्युत्पत्ति से मनुष्य का 'शरीर, इन्द्रियाँ, मन व बुद्धि' सभी 'नारम्' कहलाते हैं; इन सबको जो [दापति=दैप् शोधने] शुद्ध करता है वह [नार-द] कहलाता है। बाहर की सफाई में ही न उलझा हुआ मनुष्य कहीं अधिक बुद्धिमान् है, यह ‘काण्व' कहा गया है। इस ‘नारद काण्व' से प्रभु कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय जीवात्मन्! यदि तू (सोमेषु सुतेषु) = सोमों का उत्पादन होने पर (उक्थ्यम् क्रतुम्) = अनवद्य, अर्थात् स्तुत्य, प्रशंसनीय सङ्कल्प को (पुनीषे) = पवित्र करता है और (वृधस्य दक्षस्य) = वृद्धि के कारणभूत बल का (विदे) = लाभ करता है [विद्=पाना] तब (सः) = वह तू (हि) = निश्चय से (महान्) = महनीय - महत्त्व प्राप्त करनेवाला होता है ।

मन्त्र के उल्लिखित शब्दों में 'महान्' का लक्षण निम्न शब्दों में दिया गया है— 
१. (सुतेषु सोमेषु) = यह सोम का सम्पादन करता है। अपने जीवन को संयम के द्वारा शक्तिशाली बनाता है। अशक्त पुरुष का महान् बनना सम्भव नहीं । सोम [Semen] का पान ही मनुष्य को (इन्द्र) = परमैश्वर्यशाली बनाता है । यही उसका मुख्य गुण है । इसी के (मद) = मस्ती में वह असुरों का संहार करता है, आसुर वृत्तियों को कलीरूप में ही समाप्त कर देता है ।

२. (उक्थ्यम् क्रतुं पुनीषे) = सोम-पान के परिणामस्वरूप ही यह अपने मानस सङ्कल्पों को पवित्र करता है। उसके सङ्कल्प (अनवद्य) = निष्पाप होते हैं, अतएव स्तुत्य व प्रशस्य होते हैं। 

३. (वृधस्य दक्षस्य विदे) = सोम-पान से- शक्ति के संयम से—यह (दक्ष) = बल प्राप्त करता ही है, साथ ही इसका बल वृद्धि का कारण होता है, अतएव इसे वह यशस्वी बनाता है । यह ‘यशोबलम्' वाला होता है, तभी तो यह महान् हुआ । 

भावार्थ -

१. मैं शक्ति का सम्पादन करूँ, २. मेरा बल यशस्वी हो ।

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