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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 748
ऋषिः - नारदः काण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम -
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त꣡मु꣢ हुवे꣣ वा꣡ज꣢सातय꣣ इ꣢न्द्रं꣣ भ꣡रा꣢य शु꣣ष्मि꣡ण꣢म् । भ꣡वा꣢ नः सु꣣म्ने꣡ अन्त꣢꣯मः꣣ स꣡खा꣢ वृ꣣धे꣢ ॥७४८॥

स्वर सहित पद पाठ

तम् । उ꣣ । हुवे । वा꣡ज꣢꣯सातये । वा꣡ज꣢꣯ । सा꣣तये । इ꣡न्द्र꣢꣯म् । भ꣡रा꣢꣯य । शु꣣ष्मि꣡ण꣢म् । भ꣡व꣢꣯ । नः꣣ । सुम्ने꣢ । अ꣡न्त꣢꣯मः । स꣡खा꣢꣯ । स । खा꣡ । वृधे꣢ ॥७४८॥


स्वर रहित मन्त्र

तमु हुवे वाजसातय इन्द्रं भराय शुष्मिणम् । भवा नः सुम्ने अन्तमः सखा वृधे ॥७४८॥


स्वर रहित पद पाठ

तम् । उ । हुवे । वाजसातये । वाज । सातये । इन्द्रम् । भराय । शुष्मिणम् । भव । नः । सुम्ने । अन्तमः । सखा । स । खा । वृधे ॥७४८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 748
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

नारद कहता है कि (वाजसातये) = शक्ति के लाभ के लिए मैं (तम् इन्द्रम् उ) = उस परमात्मा को ही (हुवे) = पुकारता हूँ । वही तो अनन्त शक्ति का स्रोत है— इन्द्र है । (भराय) = अपने अन्दर दिव्य गुणों को भरने के लिए भी मैं उसे पुकारता हूँ, क्योंकि वह (शुष्मिणम्) = काम-क्रोधादि के उमड़ते स्रोतों को सुखा देनेवाला है। 'शुष्म' उस बल का नाम है जो शत्रुओं का शोषण कर देता है । मैं प्रभु को पुकारूँगा तो प्रभु का नामोच्चारण ही मेरे काम-क्रोधादि शत्रुओं का नामावशेष कर देगा।

अतएव नारद प्रभु से प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आप (नः सुम्ने भव) = हमारे कल्याण व सुख के लिए होओ । (अन्तमः सखा) = आप ही हमारे निकटतम=Intimate मित्र हैं। (वृधे) = आप ही हमारी वृद्धि के लिए होते हैं । काम-क्रोध और लोभ हमारी उन्नति के मार्ग में विघातक हैं, प्रभु इनका विघात करके हमारी उन्नति के मार्ग को निर्विघ्न कर देते हैं । प्रभु से संपृक्त हो हम शक्तिशाली बनते हैं और उन्नति करने में सफल होते हैं। प्रभु का स्मरण हमें दिव्य भावनाओं से भरनेवाला होता है और इस प्रकार हमारी वृद्धि का कारण होता है ।

भावार्थ -

मैं प्रभु को पुकारूँ, अपने में शक्ति भरूँ, कामादि को सुखा दूँ और महान् बनकर प्रभु की भाँति बन जाऊँ ।

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