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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 768
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - प्रगाथः(विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
5
आ꣡ ह꣢र्य꣣तो꣡ अर्जु꣢꣯नो꣣ अ꣡त्के꣢ अव्यत प्रि꣣यः꣢ सू꣣नु꣡र्न मर्ज्यः꣢꣯ । त꣡मी꣢ꣳ हिन्वन्त्य꣣प꣢सो꣣ य꣢था꣣ र꣡थं꣢ न꣣दी꣡ष्वा गभ꣢꣯स्त्योः ॥७६८॥
स्वर सहित पद पाठआ । ह꣣र्य꣢तः । अ꣡र्जु꣢꣯नः । अ꣡त्के꣢꣯ । अ꣣व्यत । प्रियः꣢ । सू꣣नुः꣢ । न । म꣡र्ज्यः꣢꣯ । तम् । ई꣣म् । हिन्वन्ति । अ꣡पसः꣢ । य꣡था꣢꣯ । र꣡थ꣢꣯म् । न꣣दी꣡षु꣢ । आ । ग꣡भ꣢꣯स्त्योः ॥७६८॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हर्यतो अर्जुनो अत्के अव्यत प्रियः सूनुर्न मर्ज्यः । तमीꣳ हिन्वन्त्यपसो यथा रथं नदीष्वा गभस्त्योः ॥७६८॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । हर्यतः । अर्जुनः । अत्के । अव्यत । प्रियः । सूनुः । न । मर्ज्यः । तम् । ईम् । हिन्वन्ति । अपसः । यथा । रथम् । नदीषु । आ । गभस्त्योः ॥७६८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 768
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 1; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 6; सूक्त » 2; मन्त्र » 2
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विषय - सोम किस में रक्षित होता है
पदार्थ -
गत मन्त्र में ‘षट्कसम्पत्ति' का वर्णन हुआ है । वह षट्कसम्पत्ति सबसे प्रथम ‘सोम' रूप सम्पत्ति की नींव पर आश्रित है । यह सोम हमारे शरीर में Semen = वीर्य के रूप में स्थित है। यह १. (हर्यतः) = [हर्य गतिकान्त्योः] गति का स्रोत व कान्त है । इसके होने पर ही जीवन प्रगतिमय व सुन्दर होता है । २. (अर्जुनः) = यह अर्जुन के योग्य होता है। अर्जुन का अर्थ 'श्वेत' भी है । यह शुभ्र वर्ण का सोम वस्तुतः अर्जनीय होता है । यही हमारे जीवन की सर्वमहान् कमाई है। ३. ('सूनुः न प्रियः') = पुत्र के समान हमें यह प्रिय होना चाहिए । ४. (मर्ज्य:) = यह सोम शुद्ध रखने योग्य है। वासनाएँ इसे अपवित्र करती हैं। इसे वासनाओं का शिकार नहीं होने देना ।
यह सोम (अत्के) = [अत्क=Members of the body] शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों में (आ) = सर्वथा (अव्यत) = रक्षित किया जाए। शरीर में उत्पन्न होकर वह शरीर में सुरक्षित हो । 'अत्क' का अर्थ सतत गतिशील भी है—यह सोम सतत गतिशील में ही सुरक्षित होता है। इसी भावना को मन्त्र में इस रूप में व्यक्त करते हैं कि (तम्) = उस सोम को (ईम्) = निश्चय से ('अपसः') = क्रियाशील लोग ही (हिन्वन्ति) = प्राप्त करते हैं। यह सोम (यथारथम्) = [रथस्य (योग्यम्) = यथारथम्] शरीर के ही योग्य हैशरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्गों में ही इसका निवास होना चाहिए। इस तत्त्व को समझ लेनेवाला व्यक्ति इस कार्य की दुष्करता को अनुभव करता हुआ प्रभु का स्तवन करेगा। प्रभु ही उसे इस दुष्कर कार्य में समर्थ बनाएँगे, अतः (नदीषु) = स्तोताओं में – प्रभु की स्तुति करनेवालों में जो (अपसः) = क्रियाशील लोग होते हैं, वे ही इस सोम को शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में [रथ=शरीर] व्याप्त करनेवाले बनते हैं। ये कर्मशील स्तोता ही (गभस्त्योः) = ज्ञान की किरणरूप हाथों में ही (आहिन्वन्ति) = इसे सर्वथा प्राप्त करते हैं। ज्ञान-प्राप्ति में लगे रहने पर यह सोम ज्ञानाग्नि का ईंधन बन उसे उज्ज्वल करता है, क्रियाशीलता से यह शरीर का अङ्ग बनकर उन्हें सबल बनाता है। उपासना से यह हमें सचमुच उस प्रभु के [उप] समीप [आसना] आसीन करता है ।
एवं, यह स्पष्ट है कि सोम की रक्षा के लिए 'ज्ञान, कर्म व उपासना' की त्रयी आवश्यक है। यह त्रयी ही हमें वासनाओं से तराएगी और हम 'सोम' को प्राप्त कर सोमी बनेंगे।
भावार्थ -
हम सोम के महत्त्व को समझें और उसका विनियोग ज्ञान, कर्म व उपासना में करनेवाले बनें ।
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