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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 808
ऋषिः - उपमन्युर्वासिष्ठः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम -
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ए꣣वा꣡ प꣢वस्व मदि꣣रो꣡ मदा꣢꣯योदग्रा꣣भ꣡स्य꣢ न꣣म꣡य꣢न्वध꣣स्नु꣢म् । प꣢रि꣣ व꣢र्णं꣣ भ꣡र꣢माणो꣣ रु꣡श꣢न्तं ग꣣व्यु꣡र्नो꣢ अर्ष꣣ प꣡रि꣢ सोम सि꣣क्तः꣢ ॥८०८॥

स्वर सहित पद पाठ

ए꣣व꣢ । प꣣वस्व । मदिरः꣢ । म꣡दा꣢꣯य । उ꣣दग्राभ꣡स्य꣢ । उ꣣द । ग्राभ꣡स्य꣢ । न꣣म꣡य꣢न् । व꣣धस्नु꣢म् । व꣣ध । स्नु꣢म् । प꣡रि꣢꣯ । व꣡र्ण꣢꣯म् । भ꣡र꣢꣯माणः । रु꣡श꣢꣯न्तम् । ग꣣व्युः꣢ । नः꣣ । अर्ध । प꣡रि꣢꣯ । सो꣣म । सिक्तः꣢ ॥८०८॥


स्वर रहित मन्त्र

एवा पवस्व मदिरो मदायोदग्राभस्य नमयन्वधस्नुम् । परि वर्णं भरमाणो रुशन्तं गव्युर्नो अर्ष परि सोम सिक्तः ॥८०८॥


स्वर रहित पद पाठ

एव । पवस्व । मदिरः । मदाय । उदग्राभस्य । उद । ग्राभस्य । नमयन् । वधस्नुम् । वध । स्नुम् । परि । वर्णम् । भरमाणः । रुशन्तम् । गव्युः । नः । अर्ध । परि । सोम । सिक्तः ॥८०८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 808
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 11; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 3; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

१. (एवा) = गतिशील तू (पवस्व) = अपने जीवन को पवित्र कर । जीवन की पवित्रता के लिए क्रियाशीलता आवश्यक है। निष्क्रियता जीवन की अपवित्रता का कारण बनती है। २. (मदिर:) = तू अपने सम्पर्क में आनेवाले सभी को आनन्दित करनेवाला हो । ३. (मदाय) = स्वयं तेरा जीवन उल्लास को लिये हुए हो । तू ४. (उदग्राभस्य) = ज्ञान-जल के ग्रहण करनेवाले के (वध-स्नुम्) = नाशक शिखर प्रदेश को (नमयन्) = झुकानेवाला हो। जल ‘ज्ञान' का प्रतीक है। आचार्य को 'अर्णव' [ज्ञान का] समुद्र कहा है। ज्ञान की अधिदेवता 'सरस्वती' प्रवाहवाली है । एवं, ('उदग्राभ') = ज्ञानजल के ग्रहण करनेवाले का नाम है । जब मनुष्य औरों से अधिक ज्ञानी हो जाता है, तो कहीं उसे अभिमान न हो जाए इसके लिए कहते हैं कि 'यह जो उद्ग्राभ का वध करनेवाला शिखर है, तू उसे झुकानेवाला बन ।' ज्ञान का तुझे घमण्ड न हो जाए । ५. (रुशन्तम्) = चमकते हुए (वर्णम्) = तेजस्विता के रंग को (परिभरमाणः) = अङ्ग-प्रत्यङ्ग में धारण करनेवाला तू हो । ६. (गव्युः) = ज्ञान व प्रकाश की किरणों को चाहनेवाला तू हो। ७. (सोम) = सौम्य स्वभाववाले उपमन्यो ! ८. (सिक्तः) = दया की भावना से सिक्त हुआ-हुआ तू (नः) = हमें (परिअर्ष) = सर्वथा प्राप्त हो । 

भावार्थ -

हम ज्ञान के शिखर पर पहुँच ज्ञान का गर्व न करें। हम ज्ञान के घमण्ड से मारे न जाएँ ।
 

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