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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 823
ऋषिः - पृष्णयोऽजाः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - जगती
स्वरः - निषादः
काण्ड नाम -
7
अ꣣यं꣡ पु꣢ना꣣न꣢ उ꣣ष꣡सो꣢ अरोचयद꣣य꣡ꣳ सिन्धु꣢꣯भ्यो अभवदु लोक꣣कृ꣢त् । अ꣣यं꣢꣫ त्रिः स꣣प्त꣡ दु꣢दुहा꣣न꣢ आ꣣शि꣢र꣣ꣳ सो꣡मो꣢ हृ꣣दे꣡ प꣢वते꣣ चा꣡रु꣢ मत्स꣣रः꣢ ॥८२३॥
स्वर सहित पद पाठअ꣣य꣢म् । पु꣣ना꣢नः । उ꣣ष꣡सः꣢ । अ꣣रोचयत् । अय꣢म् । सि꣡न्धु꣢꣯भ्यः । अ꣣भवत् । उ । लोककृ꣢त् । लो꣣क । कृ꣢त् । अ꣣य꣢म् । त्रिः । स꣣प्त꣢ । दु꣣दुहानः꣢ । आ꣣शि꣡र꣢म् । आ꣣ । शि꣡र꣢꣯म् । सो꣡मः꣢꣯ । हृ꣣दे꣢ । प꣣वते । चा꣡रु꣢꣯ । म꣣त्स꣢रः ॥८२३॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं पुनान उषसो अरोचयदयꣳ सिन्धुभ्यो अभवदु लोककृत् । अयं त्रिः सप्त दुदुहान आशिरꣳ सोमो हृदे पवते चारु मत्सरः ॥८२३॥
स्वर रहित पद पाठ
अयम् । पुनानः । उषसः । अरोचयत् । अयम् । सिन्धुभ्यः । अभवत् । उ । लोककृत् । लोक । कृत् । अयम् । त्रिः । सप्त । दुदुहानः । आशिरम् । आ । शिरम् । सोमः । हृदे । पवते । चारु । मत्सरः ॥८२३॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 823
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 5; सूक्त » 3; मन्त्र » 3
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विषय - चार प्रयत्न
पदार्थ -
(अयम्) = यह सिकता निवावरी उषस:- बहुत सवेरे से ही पुनान:- अपने जीवन को पवित्र करता हुआ अरोचयत्=अपने सब कोशों को उज्ज्वल व दीप्त करता है। सब कोशों का स्वास्थ्य नैर्मल्य पर ही निर्भर करता है । शरीर में मल [Foreign matter] बढ़ते ही मनुष्य रोगी हो जाता है। इन्द्रियों का मल विषयपंक है-मन का राग-द्वेष तथा बुद्धि की कुण्ठता और अन्त में आनन्दमय कोश का मल असहिष्णुता है । यह प्रातः से ही इन मलों के शोधन में लगता है और अपने समूचे जीवन को दीप्त बनाता है। २. उ- और अयम् - यह सिकता निवावरी सिन्धुभ्यः-स्यन्दन के स्वभाववाले रेत:कणों से [आप: रेतः भूत्वा] अपने जीवन में लोककृत्= [लोक् दर्शने] प्रभु का दर्शन करनेवाला अभवत्-बनता है । वस्तुतः सुरक्षित सोम [रेतस्] ने ही हमें उस सोम [प्रभु] का दर्शन कराना है। 'यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति' प्रभु-दर्शन के लिए यह ब्रह्मचर्य आवश्यक ही है। ३. अयम्=यह त्रिसप्त=१० इन्द्रियाँ १० प्राण व एक मन इन इक्कीस साधनों को दुदुहान:- [दुह प्रपूरणे] न्यूनताओं को दूर करके शक्ति से भरता हुआ ४. सोमः = यह शक्ति का पुञ्ज तथा सौम्य स्वभाववाला हृदे=हृदय में [हृदि] उस चारु आशिरम् - सुन्दर आश्रयभूत प्रभु को [श्रिञ् सेवायाम् से आशिर] पवते - प्राप्त होता और मत्सर:=आनन्दमय जीवनवाला होता है ।
भावार्थ -
हम प्रातः से ही अपना परिमार्जन प्रारम्भ करें तभी हृदयस्थ प्रभु का हम दर्शन कर पाएँगे।
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