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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 918
ऋषिः - वसिष्ठो मैत्रावरुणिः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः काण्ड नाम -
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मा꣡ पा꣢प꣣त्वा꣡य꣢ नो न꣣रे꣡न्द्रा꣢ग्नी꣣ मा꣡भिश꣢꣯स्तये । मा꣡ नो꣢ रीरधतं नि꣣दे꣢ ॥९१८॥

स्वर सहित पद पाठ

मा । पा꣣पत्वा꣡य꣢ । नः꣣ । नरा । इ꣡न्द्रा꣢꣯ग्नी । इ꣡न्द्र꣢꣯ । अ꣣ग्नीइ꣡ति꣢ । मा । अ꣣भि꣡श꣢स्तये । अ꣣भि꣢ । श꣣स्तये । मा꣢ । नः꣣ । रीरधतम् । निदे꣢ ॥९१८॥


स्वर रहित मन्त्र

मा पापत्वाय नो नरेन्द्राग्नी माभिशस्तये । मा नो रीरधतं निदे ॥९१८॥


स्वर रहित पद पाठ

मा । पापत्वाय । नः । नरा । इन्द्राग्नी । इन्द्र । अग्नीइति । मा । अभिशस्तये । अभि । शस्तये । मा । नः । रीरधतम् । निदे ॥९१८॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 918
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 3; सूक्त » 4; मन्त्र » 3
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पदार्थ -

हे (इन्द्राग्नी) = बल व प्रकाश की देवताओ ! (नरा) = आप दोनों ही मुझे इस जीवन-पथ पर आगे ले-चलनेवाले हो और (न:) = हमें (पापत्वाय) = किसी पाप कर्म के लिए (मा) = मत (रीरधतम्) = वश में करो। हम पाप करने के लिए विवश न हो जाएँ । २. (अभिशस्तये) = हिंसा के लिए अथवा दोषारोपण के लिए (मा) = मत वशीभूत करो। हम किसी की हिंसा न करें—किसी पर व्यर्थ दोषारोपण न करें। ३. (नः) = हमें (निदे) = निन्दा के लिए, घृणा के लिए, उपहास के लिए [censure, despise, mock] (मा) = मत वश में करो ।

वस्तुतः बल और ज्ञान से सम्पन्न व्यक्ति–‘ब्रह्म और क्षत्र' के विकासवाला व्यक्ति करता है, न हिंसा, न निन्दा ! इन बातों की ओर उसका झुकाव नहीं रहता।

भावार्थ -

मैं ब्रह्म व क्षत्र का विकास करके पाप, हिंसा व निन्दा से ऊपर उठूँ ।

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