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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 954
ऋषिः - पावकोऽग्निर्बार्हस्पत्यो वा, गृहपतियविष्ठौ सहसः पुत्रावन्यतरो वा
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बृहती
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
इ꣡न्द्र꣢स्तुरा꣣षा꣢ण्मि꣣त्रो꣢꣫ न ज꣣घा꣡न꣢ वृ꣣त्रं꣢꣫ यति꣣र्न꣢ । बि꣣भे꣡द꣢ ब꣣लं꣢꣫ भृगु꣣र्न꣡ स꣢सा꣣हे꣢꣫ शत्रू꣣न्म꣢दे꣣ सो꣡म꣢स्य ॥९५४॥
स्वर सहित पद पाठइ꣡न्द्रः꣢꣯ । तु꣣राषा꣢ट् । मि꣣त्रः꣢ । मि꣣ । त्रः꣢ । न । ज꣣घा꣡न꣢ । वृ꣣त्र꣢म् । य꣡तिः꣢꣯ । न । बि꣣भे꣡द꣢ । ब꣣ल꣢म् । भृ꣡गुः꣢꣯ । न । स꣣साहे꣢ । श꣡त्रू꣢꣯न् । म꣡दे꣢꣯ । सो꣡म꣢꣯स्य ॥९५४॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्तुराषाण्मित्रो न जघान वृत्रं यतिर्न । बिभेद बलं भृगुर्न ससाहे शत्रून्मदे सोमस्य ॥९५४॥
स्वर रहित पद पाठ
इन्द्रः । तुराषाट् । मित्रः । मि । त्रः । न । जघान । वृत्रम् । यतिः । न । बिभेद । बलम् । भृगुः । न । ससाहे । शत्रून् । मदे । सोमस्य ॥९५४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 954
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » ; सूक्त » 22; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6; सूक्त » 7; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
१. (इन्द्रः) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाला इन्द्र (मित्रः न) = सूर्य के समान, जैसे उदय होता हुआ सूर्य कृमियों को नष्ट करता है, उसी प्रकार (तुराषाट्) = शत्रुओं को त्वरा से पराभव करनेवाला होता है। इन्द्रियों का अधिष्ठाता जीव आसुरवृत्तियों का पराभव करता है । २. (यतिः न) = एक यतिइन्द्रियों का पूर्ण निग्रह करनेवाले संयमी पुरुष के समान यह (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (जघान) = नष्ट करता है । ३. (भृगुः) = न अपना पूर्ण परिपाक करनेवाले पुरुष के समान (वलं बिभेद) = नामक असुर का यह भेदन करता है । असुररूप वल को तो यह विदीर्ण ही कर देता है । ४. यह इन्द्र (सोमस्य मदे) = अपने अन्दर ही खपाये हुए सोम के मद में (शत्रून्) = शक्ति के नाशक कामादि को (ससाहे) = पूर्णरूप से अभिभूत करता है।
भावार्थ -
इन्द्र शत्रुओं का पराभव करता है, ज्ञान के आवरणभूत वृत्र को नष्ट करता है, वल व असुर नहीं बनने देता और सोम के मद में शत्रुओं को समाप्त कर देता है ।