Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 971
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम -
3
अ꣣꣬भ्य꣢꣯र्ष बृ꣣ह꣡द्यशो꣢꣯ म꣣घ꣡व꣢द्भ्यो ध्रु꣣व꣢ꣳ र꣣यि꣢म् । इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥९७१॥
स्वर सहित पद पाठअभि꣢ । अ꣣र्ष । बृह꣢त् । य꣡शः꣢꣯ । म꣣घ꣢व꣢द्भ्यः । ध्रु꣣व꣢म् । र꣣यि꣢म् । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥९७१॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यर्ष बृहद्यशो मघवद्भ्यो ध्रुवꣳ रयिम् । इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥९७१॥
स्वर रहित पद पाठ
अभि । अर्ष । बृहत् । यशः । मघवद्भ्यः । ध्रुवम् । रयिम् । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥९७१॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 971
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
Acknowledgment
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 4; मन्त्र » 4
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 4
Acknowledgment
विषय - बृहद्यश, ध्रुवरयि व इष
पदार्थ -
हे प्रभो! आप (मघवद्भ्यः) = [मघ=मख] यज्ञमय जीवनवाले अपने स्(तोतृभ्यः) =स्तोताओं के लिए १. (बृहत् यशः) = [बृहि वृद्धौ] वृद्धि के कारणभूत यश को (अभ्यर्ष) = प्राप्त कराइए। अपयश मनुष्य को निराश व हताश कर देता है, अतियश कुछ अभिमान की ओर ले जाता है और मर्यादित यश उत्साह द्वारा वृद्धि का कारण बनता है। २. (ध्रुवं रयिम्) = स्थैर्यवाले धन को प्राप्त कराइए । निर्धनता मनुष्य को नाश व पाप की ओर ले जाती है, अतिधन 'अहंकार व विषयों' की ओर । मर्यादित धन मनुष्य को धर्म के मार्ग में ध्रुव [स्थिर] करता है, यही ‘ध्रुव रयि'=स्थिर धन है। ३. हे प्रभो ! हमें सदा (इषम्) = प्रेरणा व उत्तम इच्छा (आभर) = प्राप्त कराइए । हम प्रभु का स्तवन करें । वे प्रभु हमें सदा अन्तःप्रकाश प्राप्त कराएँ जिससे उस प्रकाश में हम सदा उत्तम इच्छाओंवाले बनें।
भावार्थ -
हम यज्ञशील बनकर प्रभु का सच्चा स्तवन करें। वे प्रभु हमें वृद्धि के कारणभूत 'यश, स्थिर धन व उत्तम प्रेरणा' प्राप्त कराएँ ।