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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 108
ऋषिः - सौभरि: काण्व:
देवता - अग्निः
छन्दः - उष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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प्र꣡ सो अ꣢꣯ग्ने꣣ त꣢वो꣣ति꣡भिः꣢ सु꣣वी꣡रा꣢भिस्तरति꣣ वा꣡ज꣢कर्मभिः । य꣢स्य꣣ त्व꣢ꣳ स꣣ख्य꣡मावि꣢꣯थ ॥१०८॥
स्वर सहित पद पाठप्र꣢ । सः । अ꣣ग्ने । त꣡व꣢꣯ । ऊ꣣ति꣡भिः꣢ । सु꣣वी꣡रा꣢भिः । सु꣣ । वी꣡रा꣢꣯भिः । त꣣रति । वा꣡ज꣢꣯कर्मभिः । वा꣡ज꣢꣯ । क꣣र्मभिः । य꣣स्य꣢꣯ । त्वम् । स꣣ख्य꣢म् । स꣣ । ख्य꣢म् । आ꣡वि꣢꣯थ ॥१०८॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र सो अग्ने तवोतिभिः सुवीराभिस्तरति वाजकर्मभिः । यस्य त्वꣳ सख्यमाविथ ॥१०८॥
स्वर रहित पद पाठ
प्र । सः । अग्ने । तव । ऊतिभिः । सुवीराभिः । सु । वीराभिः । तरति । वाजकर्मभिः । वाज । कर्मभिः । यस्य । त्वम् । सख्यम् । स । ख्यम् । आविथ ॥१०८॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 108
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 2; मन्त्र » 2
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
शब्दार्थ = हे अग्ने पूजनीय ईश्वर ! ( त्वं यस्य सख्यम् आविथ ) = आप जिस पुरुष की मित्रता को प्राप्त होते हैं, ( सः ) = वह ( तव ) = आपकी ( वाजकर्मभिः ) = बल करनेवाली ( सुवीराभिः ) = सुन्दर वीर्यवाली ( ऊतिभिः ) = रक्षाओं से ( प्रतरति ) = पार हो जाता है।
भावार्थ -
भावार्थ = हे पूजनीय प्रभो ! जो पुरुष आपकी भक्ति में लग गये और आपके ही मित्र हो गये हैं, उन भक्तों को आप अपनी अति बल वाली, पुरुषार्थ और पराक्रमवाली रक्षाओं से सर्वदुःखों से पार करते हैं, अर्थात् उनके सब दुःख नष्ट करते हैं। आपकी अपार कृपा से उन प्रेमियों को आत्मिक बल मिलता है, जिससे कठिन-से-कठिन विपत्ति आने पर भी, सदाचाररूप धर्म और आपकी भक्ति से कभी चलायमान नहीं होते।
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