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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1605
ऋषिः - देवातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - बार्हतः प्रगाथः (विषमा बृहती, समा सतोबृहती)
स्वरः - मध्यमः
काण्ड नाम -
2
मा꣡ भे꣢म꣣ मा꣡ श्र꣢मिष्मो꣣ग्र꣡स्य꣢ स꣣ख्ये꣡ तव꣢꣯ । म꣣ह꣢त्ते꣣ वृ꣡ष्णो꣢ अभि꣣च꣡क्ष्यं꣢ कृ꣣तं꣡ पश्ये꣢꣯म तु꣣र्व꣢शं꣣ य꣡दु꣢म् ॥१६०५॥
स्वर सहित पद पाठमा꣢ । भे꣣म । मा꣢ । श्र꣣मिष्म । उग्र꣡स्य꣢ । स꣣ख्ये꣢ । स꣣ । ख्ये꣢ । त꣡व꣢꣯ । म꣣ह꣢त् । ते꣣ । वृ꣡ष्णः꣢꣯ । अ꣣भिच꣡क्ष्य꣢म् । अ꣣भि । च꣡क्ष्य꣢꣯म् । कृ꣣त꣢म् । प꣡श्ये꣢꣯म । तु꣣र्व꣡श꣢म् । य꣡दु꣢꣯म् ॥१६०५॥
स्वर रहित मन्त्र
मा भेम मा श्रमिष्मोग्रस्य सख्ये तव । महत्ते वृष्णो अभिचक्ष्यं कृतं पश्येम तुर्वशं यदुम् ॥१६०५॥
स्वर रहित पद पाठ
मा । भेम । मा । श्रमिष्म । उग्रस्य । सख्ये । स । ख्ये । तव । महत् । ते । वृष्णः । अभिचक्ष्यम् । अभि । चक्ष्यम् । कृतम् । पश्येम । तुर्वशम् । यदुम् ॥१६०५॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1605
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 7; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » ; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 16; खण्ड » 4; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
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पदार्थ -
शब्दार्थ = हे जगदीश्वर ! ( उग्रस्य तव सख्ये ) = अति बलवान् आपकी मित्रता में ( मा भेम: ) = हम किसी से न डरें ( मा श्रमिष्म ) = न थकें ( ते वृष्णः ) = कामना पूरक आपका ( महत् ) = बड़ा ( अभिचक्ष्यम् ) = सर्वतः स्तुति योग्य ( कृतं ) = कर्म है आपकी मित्रता से ( तुर्वशम् ) = समीप स्थित ( यदुम् पश्येम ) = मनुष्य को हम देखें ।
भावार्थ -
भावार्थ = हे परमात्मन् ! संसार में यह प्रसिद्ध है, कि जिसका कोई राजा आदि बलवान् मित्र बन जाता है, तब वह मनुष्य साधारण मनुष्य से नहीं डरता, प्राय: उसके अधीन सब मनुष्य हो जाते हैं। ऐसे ही जो पुरुष, प्रबल प्रतापी आप प्रभु की शरण में आ गये और आपको ही अपना मित्र बनाते हैं, वे किसी से भी नहीं डरते उलटा सबको अपना भाई जान, सबके हित में लगे रहते हैं, ऐसे सच्चे भक्तों की सब कामनाओं को आप पूर्ण करते हैं ।
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