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  • यजुर्वेद - अध्याय 12/ मन्त्र 58
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - भुरिगुपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः
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    सं वां॒ मना॑सि॒ सं व्र॒ता समु॑ चि॒त्तान्याक॑रम्। अग्ने॑ पुरीष्याधि॒पा भ॑व॒ त्वं न॒ इष॒मूर्जं॒ यज॑मानाय धेहि॥५८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम्। वा॒म्। मना॑सि। सम्। व्र॒ता। सम्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। चि॒त्तानि॑। आ। अ॒क॒र॒म्। अग्ने॑। पु॒री॒ष्य॒। अ॒धि॒पा इत्य॑धि॒ऽपाः। भ॒व॒। त्वम्। नः॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। यज॑मानाय। धे॒हि॒ ॥५८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सँवाम्मनाँसि सँव्रता समु चित्तान्याकरम् । अग्ने पुरीष्याधिपा भव त्वन्न इषमूर्जँयजमानाय धेहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सम्। वाम्। मनासि। सम्। व्रता। सम्। ऊँ इत्यूँ। चित्तानि। आ। अकरम्। अग्ने। पुरीष्य। अधिपा इत्यधिऽपाः। भव। त्वम्। नः। इषम्। ऊर्जम्। यजमानाय। धेहि॥५८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 12; मन्त्र » 58
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    भावार्थ -
    मैं आचार्य या पुरोहित ( वाम् ) तुम दोनों के ( मनांसि ) मन के संकल्प विकल्पों को ( सं आ अकरम् ) समान करता हूं । ( व्रता सम् ) व्रत, प्रतिज्ञाओं को भी समानरूप करता हूं | ( चित्तानि ) चित्तों को या ज्ञानपूर्वक किये कर्मों को भी सम् आ अकरम् ) समानरूप से करता हूं | हे ( अग्ने ) ज्ञानवन् ! विद्वन् ! हे ( पुरीष्य ) पुर में सबसे अधिक इष्ट, समृद्ध राजन् ! ( त्वम् अधिपाः भव ) तू सबका स्वामी हो । ( इषम् ऊर्जम् ) अन्न और बल को तू ( नः यजमानाय ) हमारे में से दानशील, सत्संगी या देवोपासक धर्मात्मा पुरुष को ( धेहि ) प्रदान कर ।

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