यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 4
ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - सभापतिर्देवता
छन्दः - निचृदार्षी गायत्री
स्वरः - षड्जः
1
को॑ऽसि कत॒मोऽसि॒ कस्मै॑ त्वा॒ काय॑ त्वा। सुश्लो॑क॒ सुम॑ङ्गल॒ सत्य॑राजन्॥४॥
स्वर सहित पद पाठकः। अ॒सि॒। क॒त॒मः। अ॒सि॒। कस्मै॑। त्वा॒। काय॑। त्वा॒। सुश्लो॒केति॒ सुऽश्लो॑क। सुम॑ङ्ग॒लेति॒ सुऽम॑ङ्गल। सत्य॑राज॒न्निति॒ सत्य॑ऽराजन् ॥४ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कोसि कतमोसि कस्मै त्वा काय त्वा । सुश्लोक सुमङ्गल सत्यराजन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
कः। असि। कतमः। असि। कस्मै। त्वा। काय। त्वा। सुश्लोकेति सुऽश्लोक। सुमङ्गलेति सुऽमङ्गल। सत्यराजन्निति सत्यऽराजन्॥४॥
विषय - सम्राट् का नामकरण और उपाधिवितरण ।
भावार्थ -
हे उत्तम पुरुष ! तू ( कः असि ) तू कौन है ? तू (कतमः- असि) उपस्थित पुरुषों में से कौन है ? यह अपना परिचय सब को दे । (कस्मै वा) किसलिये तुझे यहां अभिषेक किया है ? उत्तर - ( काय ). प्रजापालक, प्रजापति, राजा पद के लिये (त्वा) मैं तुझे अभिषेक करता: हूँ । हे (सु-श्लोक) उत्तम कीर्त्ति वाले ! हे (सु-मङ्गल) उत्तम मङ्गल कार्यों के करने हारे ! हे (सत्य-राजन् ) सत्य के प्रकाशक ! और सत्य न्याय से प्रकाशमान, सत्यधर्मों के प्रकाशक यथार्थ में राजा स्वरूप ! तुझे मैं अभिषिक्त करता हूँ । अथवा - हे राजन् ! (कः असि) तू सर्वकर्त्ता, प्रजापति है । तु ( कतमः असि) प्रजापालकों में सबसे उत्तम है । (कस्मै त्वा) उसी सर्वोपरि कर्त्ता, प्रजापति के पद के लिये (काय त्वा) ब्रह्म, वेद ज्ञान और वैद्यक कर्मों की वृद्धि के लिये तुझे अभिषिक्त करता हूँ इत्यादि पूर्ववत् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - प्रजापतिः । सभेशः । निचृदार्षी गायत्री । षड्जः ॥
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