यजुर्वेद - अध्याय 21/ मन्त्र 20
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेय ऋषिः
देवता - विश्वेदेवा देवताः
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
2
त्वष्टा॑ तु॒रीपो॒ऽअद्भु॑तऽइन्द्रा॒ग्नी पु॑ष्टि॒वर्ध॑ना।द्विप॑दा॒ छन्द॑ऽइन्द्रि॒यमु॒क्षा गौर्न वयो॑ दधुः॥२०॥
स्वर सहित पद पाठत्वष्टा॑। तु॒रीपः॑। अद्भु॑तः। इ॒न्द्रा॒ग्नीऽइति इन्द्रा॒ग्नी। पु॒ष्टि॒वर्ध॒नेति॑ पुष्टि॒ऽवर्ध॑ना। द्विप॑देति॒ द्विऽप॑दा। छन्दः॑। इ॒न्द्रि॒यम्। उ॒क्षा। गौः। न। वयः॑। द॒धुः॒ ॥२० ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वष्टा तुरीपोऽअद्भुतऽइन्द्राग्नी पुष्टिवर्धना । द्विपदा छन्द इन्द्रियमुक्षा गौर्न वयो दधुः ॥
स्वर रहित पद पाठ
त्वष्टा। तुरीपः। अद्भुतः। इन्द्राग्नीऽइति इन्द्राग्नी। पुष्टिवर्धनेति पुष्टिऽवर्धना। द्विपदेति द्विऽपदा। छन्दः। इन्द्रियम्। उक्षा। गौः। न। वयः। दधुः॥२०॥
विषय - आप्री देवों का वर्णन । अग्नि, तनृनपात्, सोम बहिः, द्वार, उषासानक्ता, दैव्य होता, इडा आदि तीन देवियां, त्वष्टा, वनस्पति, वरण इन पदाधिकारों के कर्त्तव्य बल और आवश्यक सदाचार । तपः सामर्थ्य का वर्णन ।
भावार्थ -
( त्वष्टा) शिल्पी, नये यन्त्र आर पदार्थ बनाने वाला, त्वष्टा या विद्युत् ( अद्भुतः) आश्चर्यजनक रूप से (तुरीपः) शीघ्रता से स्थानान्तर में जाने में समर्थ है। इसी प्रकार ( इन्द्राग्नी) सेनापति ग्राम और नगर के नेता दोनों ही (पुष्टिवर्धना) राज्य की पुष्टि को बढ़ाते हैं । (द्विपदा छन्दः) द्विपदा ऋचा के समान दो पैरों से प्रतिष्टित होने वाली मानव सृष्टि और (उक्षा गौः) वीर्य सेचन में समर्थ वृषभ ये सब राष्ट्र में (इन्द्रियम् बय:) ऐश्वर्य और दीर्घ जीवन को (दधुः) धारण करावें ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
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