ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 101/ मन्त्र 2
ऋषिः - बुधः सौम्यः
देवता - विश्वे देवा ऋत्विजो वा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
म॒न्द्रा कृ॑णुध्वं॒ धिय॒ आ त॑नुध्वं॒ नाव॑मरित्र॒पर॑णीं कृणुध्वम् । इष्कृ॑णुध्व॒मायु॒धारं॑ कृणुध्वं॒ प्राञ्चं॑ य॒ज्ञं प्र ण॑यता सखायः ॥
स्वर सहित पद पाठम॒न्द्रा । कृ॒णु॒ध्व॒म् । धियः॑ । आ । त॒नु॒ध्व॒म् । नाव॑म् । अ॒रि॒त्र॒ऽपर॑णीम् । कृ॒णु॒ध्व॒म् । इष्कृ॑णुध्वम् । आयु॒धा । अर॑म् । कृ॒णु॒ध्व॒म् । प्राञ्च॑म् । य॒ज्ञम् । प्र । न॒य॒त॒ । स॒खा॒यः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मन्द्रा कृणुध्वं धिय आ तनुध्वं नावमरित्रपरणीं कृणुध्वम् । इष्कृणुध्वमायुधारं कृणुध्वं प्राञ्चं यज्ञं प्र णयता सखायः ॥
स्वर रहित पद पाठमन्द्रा । कृणुध्वम् । धियः । आ । तनुध्वम् । नावम् । अरित्रऽपरणीम् । कृणुध्वम् । इष्कृणुध्वम् । आयुधा । अरम् । कृणुध्वम् । प्राञ्चम् । यज्ञम् । प्र । नयत । सखायः ॥ १०.१०१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 101; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(सखायः) हे समानज्ञानप्रकाशवाले जनों ! (मन्द्रा) तुम स्तुतिवचनों को (कृणुध्वम्) करो-सेवा में लाओ (धियः) कर्मों को (आ तनुध्वम्) शिल्पशाला में विस्तृत करो (अरित्रपरणीम्) परित्रों चप्पुओं से पार करानेवाली-चलनेवाली (नावम्) नौका को (कृणुध्वम्) करो-बनाओ पार में व्यापार कर्म के लिये (आयुधा) शस्त्रास्त्रों को (इष्कृणुध्वम्) तीक्ष्ण करो संग्राम के लिए (प्राञ्चम्-अरं कृणुध्वम्) अपने को सामने करो-आगे करो समाज सेवा के लिए (यज्ञं प्र नयत) यज्ञ को बढ़ाओ परोपकार के लिए ॥२॥
भावार्थ - मनुष्यों को चाहिये कि परमात्मा की स्तुति करते हुए साथ में शिल्प कार्यों को सांसारिक कार्यसिद्धि के लिए, नौकाओं को नदी समुद्र के पार जाने के लिए, शस्त्रास्त्रों के यथावसर संग्राम के लिए, अपने शरीर को समाजसेवा के लिए, यज्ञ को परोपकार के लिए करें ॥२॥
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