ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 1
ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - पिपीलिकामध्योष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
क॒दा व॑सो स्तो॒त्रं हर्य॑त॒ आव॑ श्म॒शा रु॑ध॒द्वाः । दी॒र्घं सु॒तं वा॒ताप्या॑य ॥
स्वर सहित पद पाठक॒दा । व॒सो॒ इति॑ । स्तो॒त्रम् । हर्य॑ते । आ । अव॑ । श्म॒शा । रु॒ध॒त् । वारिति॒ वाः । दी॒र्घम् । सु॒तम् । वा॒ताप्या॑य ॥
स्वर रहित मन्त्र
कदा वसो स्तोत्रं हर्यत आव श्मशा रुधद्वाः । दीर्घं सुतं वाताप्याय ॥
स्वर रहित पद पाठकदा । वसो इति । स्तोत्रम् । हर्यते । आ । अव । श्मशा । रुधत् । वारिति वाः । दीर्घम् । सुतम् । वाताप्याय ॥ १०.१०५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में परमेश्वर संसार का उत्पादक, धारक तथा स्तुति करनेवालों का रक्षक वर्धक है, नास्तिकों का नाशक है, उसकी स्तुति संसारसागर से पार करनेवाली है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(वसो) हे वसानेवाले परमात्मन् ! (स्तोत्रम्) स्तुतिवचन को (हर्यते) कामना करते हुए-चाहते हुए भी प्रार्थना करता हूँ (श्मशा) शरीर में व्यापनेवाली रक्तवाहिनी-नाडी (वाः) जल-मानव की बीजशक्ति को (अवरुधत्) जो रोकती है (वाताप्याय) प्राण वायु से बढ़े हुए (दीर्घं सुतम्) दीर्घ आयुवाला जो बल है, उससे (कदा) मुझे कभी भी अपना दर्शन देगा ॥१॥
भावार्थ - संसार में और मोक्ष में बसानेवाले परमात्मा से स्तुतिवचनों द्वारा प्रार्थना करनी चाहिए कि जो शरीर में वीर्य का स्तम्भन करनेवाली नाड़ी से जो अलौकिक बल प्राप्त होता है, उससे सुखदर्शन कभी न कभी देने की कृपा करे, निश्चय वह दर्शन देगा ॥१॥
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