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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 108/ मन्त्र 11
    ऋषिः - सरमा देवशुनी देवता - प्रणयः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दू॒रमि॑त पणयो॒ वरी॑य॒ उद्गावो॑ यन्तु मिन॒तीॠ॒तेन॑ । बृह॒स्पति॒र्या अवि॑न्द॒न्निगू॑ळ्हा॒: सोमो॒ ग्रावा॑ण॒ ऋष॑यश्च॒ विप्रा॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दू॒रम् । इ॒त॒ । प॒ण॒यः॒ । वरी॑यः । उत् । गावः॑ । य॒न्तु॒ । मि॒न॒तीः । ऋ॒तेन॑ । बृह॒स्पतिः॑ । याः । अवि॑न्दत् । निऽगू॑ळ्हाः । सोमः॑ । ग्रावा॑नः । ऋष॑यः । च॒ । विप्राः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दूरमित पणयो वरीय उद्गावो यन्तु मिनतीॠतेन । बृहस्पतिर्या अविन्दन्निगूळ्हा: सोमो ग्रावाण ऋषयश्च विप्रा: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दूरम् । इत । पणयः । वरीयः । उत् । गावः । यन्तु । मिनतीः । ऋतेन । बृहस्पतिः । याः । अविन्दत् । निऽगूळ्हाः । सोमः । ग्रावानः । ऋषयः । च । विप्राः ॥ १०.१०८.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 108; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    (पणयः) हे वणिजों के समान जलों के रक्षक मेघों ! (दूरं-वरीयः) तुम दूर-अतिदूर (इत) चले जावो (ऋतेन) सत्य स्थिर नियम के द्वारा (गावः) गमनशील जलधाराएँ (मिनतीः) सदा बन्धन में नहीं रह सकतीं, किन्तु उस रोध या बन्धन को छिन्न-भिन्न करती हुईं (उत् यन्तु) ऊपर आ जावें-बाहर निकल जावें (याः-निगूळ्हाः) जिन अन्दर छिपी हुई जलधाराओं को (बृहस्पतिः) आकाशविद्यावेत्ता (सोमः) ओषधिविद्याज्ञाता (ग्रावाणः) मेघविद्यावेत्ता जन (ऋषयः) तत्त्वदर्शक (च) और (विप्राः) मेधावी विद्वान् (अविन्दत्) प्राप्त करते हैं ॥११॥आध्यात्मिकयोजना−हे विषय ग्रहण करनेवाली प्रवृत्तियों के द्वारा व्यवहार करनेवाले इन्द्रिय प्राणों ! तुम दूर अतिदूर चले जाओ, समय आ गया कि विषय ग्रहण करनेवाली प्रवृत्तियाँ सत्य ज्ञान से परिपूरित हुई उद्गत हो जायेंगी-ऊँची हो जावेंगी। निगूढ़ की हुई वाणियों-स्तुतिवाणियों को वेदवेत्ता, शान्त, वेदवक्ता, तत्त्वदर्शक, मेधावी विद्वान् प्राप्त करते हैं ॥११॥

    भावार्थ - मेघों के अन्दर रुके हुए जल सदा नहीं रह सकते, वे कभी न कभी वृष्टि के रूप में बाहर  निकल जाते हैं तथा आकाशविद्या जाननेवाला, ओषधियों का ज्ञान रखनेवाला, मेघों को समझनेवाला तत्त्वदर्शक और मेधावी विद्वान् अपने प्रयोगों के द्वारा जलों को मेघों से वृष्टिरूप में प्राप्त कर लेवें ॥११॥

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