ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 115/ मन्त्र 2
ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
अ॒ग्निर्ह॒ नाम॑ धायि॒ दन्न॒पस्त॑म॒: सं यो वना॑ यु॒वते॒ भस्म॑ना द॒ता । अ॒भि॒प्र॒मुरा॑ जु॒ह्वा॑ स्वध्व॒र इ॒नो न प्रोथ॑मानो॒ यव॑से॒ वृषा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः । ह॒ । नाम॑ । धा॒यि॒ । दन् । अ॒पःऽत॑मः । सम् । यः । वना॑ । यु॒वते॑ । भस्म॑ना । द॒ता । अ॒भि॒ऽप्र॒मुरा॑ । जु॒ह्वा॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः । इ॒नः । न । प्रोथ॑मानः । यव॑से । वृषा॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निर्ह नाम धायि दन्नपस्तम: सं यो वना युवते भस्मना दता । अभिप्रमुरा जुह्वा स्वध्वर इनो न प्रोथमानो यवसे वृषा ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निः । ह । नाम । धायि । दन् । अपःऽतमः । सम् । यः । वना । युवते । भस्मना । दता । अभिऽप्रमुरा । जुह्वा । सुऽअध्वरः । इनः । न । प्रोथमानः । यवसे । वृषा ॥ १०.११५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 115; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(दन्) उपासकों के लिये सुख देता हुआ (अपस्तमः) अत्यन्त प्रशस्त कर्मवाला (अग्निः) ज्ञानप्रकाशक अग्रणेता परमात्मा (नाम ह) हाँ अवश्य (धायि) उपासकों द्वारा धारण किया जाता है (यः) जो (दता) दाँत दिखाते हुए हँसने जैसे (भस्मना) स्निग्ध तेज से (वना) सम्भजनीय सुखों का (सं युवते) सम्यक् जोड़ता है (स्वध्वरे) शोभन अध्यात्मयज्ञ में (अभि प्रमुरा) सामनेवाली लपेटने की (जुह्वा) वाणी से (न-इनः) सम्प्रति ईश्वर (प्रोथमानः) व्यापक होता हुआ (यवसे वृषा) अन्न उत्पत्ति के लिये मेघ के समान सुख वृष्टिकारक होता है ॥२॥
भावार्थ - अग्रणायक प्रशस्त कर्मवाला परमात्मा उपासकों को सुख देता है, वह अपनी तेजस्विता से शोभन अध्यात्मयज्ञ में स्तुतिवाणी को लक्ष्य कर वह व्यापक स्वामी अन्नोत्पत्ति के लिये जैसे मेघवर्षा करता है, ऐसे आध्यात्मिक अन्न की वृष्टि करता है ॥२॥
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