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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 115 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 115/ मन्त्र 9
    ऋषिः - उपस्तुतो वार्ष्टिहव्यः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृच्छ्क्वरी स्वरः - धैवतः

    इति॑ त्वाग्ने वृष्टि॒हव्य॑स्य पु॒त्रा उ॑पस्तु॒तास॒ ऋष॑योऽवोचन् । ताँश्च॑ पा॒हि गृ॑ण॒तश्च॑ सू॒रीन्वष॒ड्वष॒ळित्यू॒र्ध्वासो॑ अनक्ष॒न्नमो॒ नम॒ इत्यू॒र्ध्वासो॑ अनक्षन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इति॑ । त्वा॒ । अ॒ग्ने॒ । वृ॒ष्टि॒ऽहव्य॑स्य । पु॒त्राः । उ॒प॒ऽस्तु॒तासः॑ । ऋष॑यः । अ॒वो॒च॒न् । तान् । च॒ । पा॒हि । गृ॒ण॒तः । च॒ । सू॒रीन् । वष॑ट् । वष॑ट् । इति॑ । ऊ॒र्ध्वासः॑ । अ॒न॒क्ष॒न् । नमः॑ । नमः॑ । इति॑ । ऊ॒र्ध्वासः॑ । अ॒न॒क्ष॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इति त्वाग्ने वृष्टिहव्यस्य पुत्रा उपस्तुतास ऋषयोऽवोचन् । ताँश्च पाहि गृणतश्च सूरीन्वषड्वषळित्यूर्ध्वासो अनक्षन्नमो नम इत्यूर्ध्वासो अनक्षन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इति । त्वा । अग्ने । वृष्टिऽहव्यस्य । पुत्राः । उपऽस्तुतासः । ऋषयः । अवोचन् । तान् । च । पाहि । गृणतः । च । सूरीन् । वषट् । वषट् । इति । ऊर्ध्वासः । अनक्षन् । नमः । नमः । इति । ऊर्ध्वासः । अनक्षन् ॥ १०.११५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 115; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (अग्ने) हे अग्रणेता परमात्मन् ! (वृष्टिहव्यस्य) वृष्टि होती है हव्य भोज्य पदार्थों की जिससे, ऐसे तुझ परमात्मा के (पुत्राः) पुत्र (उपस्तुतासः-ऋषयः) उपासक ऋषिजन (अवोचन्) तेरे गुणों का प्रवचन करते हैं-वर्णन करते हैं (इति) यह निश्चय है (च) और (तान्) उन (गृणतः) स्तुति करते हुए (सूरीन्) स्तोताजनों की (पाहि) रक्षा कर (वषट्-वषट् इति) सत्य-सत्य अध्यात्मयज्ञ है (ऊर्ध्वासः) ऊँचे उठते हुए उत्तम बनते हुए (अक्षन्) परमात्मा को प्राप्त होते हैं, (नमः-नमः-इति) अध्यात्मयज्ञ का बारम्बार अनुष्ठान करते हुए (ऊर्ध्वासः-अनक्षन्) ऊँचे उठते हुए परमात्मा को प्राप्त करते हैं ॥९॥

    भावार्थ - परमात्मा आवश्यक सब भोग्य पदार्थों की वृष्टि करता है, उसके गुणों का वर्णन करनेवाले ऋषिजन उसके पुत्रसमान हैं। वह स्तुति करनेवालों की रक्षा करता है, उसकी स्तुति करना नितान्त सत्य है और उसका आध्यात्मिक यज्ञ करना मनुष्यों को ऊँचा उठाता है और परमात्मा को प्राप्त कराता है ॥९॥

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