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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 116/ मन्त्र 9
    ऋषिः - अग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रेन्द्रा॒ग्निभ्यां॑ सुवच॒स्यामि॑यर्मि॒ सिन्धा॑विव॒ प्रेर॑यं॒ नाव॑म॒र्कैः । अया॑ इव॒ परि॑ चरन्ति दे॒वा ये अ॒स्मभ्यं॑ धन॒दा उ॒द्भिद॑श्च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इ॒न्द्रा॒ग्निऽभ्या॑म् । सु॒ऽव॒च॒स्याम् । इ॒य॒र्मि॒ । सिन्धौ॑ऽइव । प्र । ई॒र॒य॒म् । नाव॑म् । अ॒र्कैः । अयाः॑ऽइव । परि॑ । च॒र॒न्ति॒ । दे॒वाः । ये । अ॒स्मभ्य॑म् । ध॒न॒ऽदाः । उ॒त्ऽभिदः॑ । च॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेन्द्राग्निभ्यां सुवचस्यामियर्मि सिन्धाविव प्रेरयं नावमर्कैः । अया इव परि चरन्ति देवा ये अस्मभ्यं धनदा उद्भिदश्च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । इन्द्राग्निऽभ्याम् । सुऽवचस्याम् । इयर्मि । सिन्धौऽइव । प्र । ईरयम् । नावम् । अर्कैः । अयाःऽइव । परि । चरन्ति । देवाः । ये । अस्मभ्यम् । धनऽदाः । उत्ऽभिदः । च ॥ १०.११६.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 116; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 21; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    (इन्द्राग्निभ्याम्) यन्त्रप्रयुक्त वायु और अग्नि के द्वारा (नावम्) नौका को (सिन्धौ-इव) जैसे समुद्र में या नदी में प्रेरित करते हैं तथा चलाते हैं (अर्कैः) मन्त्रों के द्वारा (सुवचस्याम्) सुस्तुति और आशीर्वादरूप वाणी को (प्र-इयर्मि) राजा के लिये या आत्मा के लिये प्रेरित करता हूँ (अयाः-इव) प्राप्त होनेवाले सभासद् या पारिवारिकजन (परि चरन्ति) सेवा करते हैं (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (ये देवाः) जो विद्वान् (धनदाः) ज्ञान धन देनेवाले (च-उद्भिदः) और दुःखों का उद्भेदन करनेवाले-नष्ट करनेवाले हैं, वे ऐसे तुझ राजा की या आत्मा की सेवा करते हैं-प्रसन्न करते हैं ॥९॥

    भावार्थ - जैसे यन्त्रप्रयुक्त वायु और अग्नि के द्वारा नौका नदी या समुद्र में प्रेरित की जाती है, वैसे मन्त्रों शुद्धविचारों के द्वारा राजा की प्रशंसा और आत्मा की आशीर्वादरूप वाणी को राजा के लिये और आत्मा के लिये प्रेरित की जानी चाहिये, राजा को प्राप्त होनेवाले सभासद् और आत्मा को प्राप्त होनेवाले पारिवारिक जन सेवा करें उसे प्रसन्न करें और ज्ञानधन देनेवाले विद्वान् अज्ञान दुःख का छेदन करें ॥९॥

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