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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 118 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उरुक्षय आमहीयवः देवता - अग्नी रक्षोहा छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॒ हंसि॒ न्य१॒॑त्रिणं॒ दीद्य॒न्मर्त्ये॒ष्वा । स्वे क्षये॑ शुचिव्रत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । हंसि॑ । नि । अ॒त्रिण॑म् । दीद्य॑त् । मर्त्ये॑षु । आ । स्वे । क्षये॑ । शु॒चि॒ऽव्र॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने हंसि न्य१त्रिणं दीद्यन्मर्त्येष्वा । स्वे क्षये शुचिव्रत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । हंसि । नि । अत्रिणम् । दीद्यत् । मर्त्येषु । आ । स्वे । क्षये । शुचिऽव्रत ॥ १०.११८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (शुचिव्रत-अग्ने) हे ज्ञानप्रकाश कर्मवाले ! या ज्वलन कर्मवाले अग्रणायक परमात्मन् ! या अग्नि ! (मर्त्येषु) मनुष्यों में या ऋत्विजों में (स्वे क्षये) स्वनिवास हृदय में या हव्यस्थान कुण्ड में (दीद्यत्) प्रकाशित होता हुआ या जलता हुआ (अत्रिणम्) आत्मतेज को खानेवाले काम भाव को या रक्तभक्षक कृमि को (आ नि हंसि) भलीभाँति नष्ट करता है ॥१॥

    भावार्थ - परमात्मा ज्ञानप्रकाश करता हुआ मनुष्यों के हृदयों में प्रकाशित होकर-प्राप्त होकर आत्मतेज को खानेवाले काम भाव को नष्ट करता है एवं ज्वलन कर्मवाला अग्नि हव्यस्थान यज्ञकुण्ड में जलता हुआ रक्तभक्षक कृमि को नष्ट करता है तथा परमात्मा की उपासना और हवन करना चाहिये ॥१॥

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