ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 118/ मन्त्र 9
तं त्वा॑ गी॒र्भिरु॑रु॒क्षया॑ हव्य॒वाहं॒ समी॑धिरे । यजि॑ष्ठं॒ मानु॑षे॒ जने॑ ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । त्वा॒ । गीः॒ऽभिः । उ॒रु॒ऽक्षयाः॑ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । सम् । ई॒धि॒रे॒ । यजि॑ष्ठम् । मानु॑षे । जने॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तं त्वा गीर्भिरुरुक्षया हव्यवाहं समीधिरे । यजिष्ठं मानुषे जने ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । त्वा । गीःऽभिः । उरुऽक्षयाः । हव्यऽवाहम् । सम् । ईधिरे । यजिष्ठम् । मानुषे । जने ॥ १०.११८.९
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 118; मन्त्र » 9
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
पदार्थ -
(उरुक्षयाः) हे परमात्मन् या अग्नि ! तेरे आश्रय में बहुत निवासवाले मनुष्य (तं त्वा हव्यवाहम्) उस तुझ प्रार्थना स्वीकार करते हुए को या होम्य वस्तु वहन करते हुए को (मानुषे जने) मनुष्यसम्बन्धी जन्म में या जनस्थान में (यजिष्ठम्) अत्यन्त सङ्गति करनेवाले या बहुत उपयोग में आनेवाले को (गीर्भिः) स्तुतियों द्वारा या मन्त्रवाणी द्वारा अपने अन्दर प्रकाशित करते हैं या सम्यक् दीप्त करते हैं ॥९॥
भावार्थ - परमात्मा के आश्रय में स्तुति करनेवाले जन रहते हैं, वह उनकी स्तुतियों को स्वीकार करता है, स्तुतियों द्वारा अपने अन्दर प्रकाशित करते हैं एवं अग्नि के आश्रय मनुष्य अपने सब कार्य चलाते हैं, वे अपने होम आदि स्थानों में अग्नि को प्रकाशित करते हैं ॥९॥
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