ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 130/ मन्त्र 1
ऋषिः - यज्ञः प्राजापत्यः
देवता - भाववृत्तम्
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
यो य॒ज्ञो वि॒श्वत॒स्तन्तु॑भिस्त॒त एक॑शतं देवक॒र्मेभि॒राय॑तः । इ॒मे व॑यन्ति पि॒तरो॒ य आ॑य॒युः प्र व॒याप॑ व॒येत्या॑सते त॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठयः । य॒ज्ञः । वि॒श्वतः॑ । तन्तु॑ऽभिः । त॒तः । एक॑ऽशतम् । दे॒व॒ऽक॒र्मेभिः॑ । आऽय॑तः । इ॒मे । व॒य॒न्ति॒ । पि॒तरः॑ । ये । आ॒ऽय॒युः । प्र । व॒य॒ । अप॑ । व॒य॒ । इति॑ । आ॒स॒ते॒ । त॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
यो यज्ञो विश्वतस्तन्तुभिस्तत एकशतं देवकर्मेभिरायतः । इमे वयन्ति पितरो य आययुः प्र वयाप वयेत्यासते तते ॥
स्वर रहित पद पाठयः । यज्ञः । विश्वतः । तन्तुऽभिः । ततः । एकऽशतम् । देवऽकर्मेभिः । आऽयतः । इमे । वयन्ति । पितरः । ये । आऽययुः । प्र । वय । अप । वय । इति । आसते । तते ॥ १०.१३०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 130; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में मुक्तों का ब्राह्मशरीर ब्राह्म सौ वर्षों का होता है, संसार में भौतिक शरीर लोकप्रसिद्ध सौ वर्षों का होता है, इत्यादि विषय कहे हैं।
पदार्थ -
(यः-यज्ञः) जो सृष्टियज्ञ या पुरुषयज्ञ (तन्तुभिः) परमाणुओं के द्वारा-या नाड़ी तन्तुओं से (विश्वतः) सर्व ओर से (ततः) फैला हुआ (देवकर्मभिः) परमात्मा के रचना आदि कर्मों द्वारा (एकशतम्) सौ वर्ष की आयुवाला ब्रह्मयज्ञ मोक्ष अवधिवाला मानवजीवन की अपेक्षा रखनेवाला शरीरयज्ञ (आयतः) दीर्घ हुआ (इमे पितरः) ये ऋतुएँ या प्राण (वयन्ति) तानते हैं-निर्माण करते हैं (ये-आययुः) जो सर्वत्र प्राप्त होते हैं (प्र वय-अप वय-इति) प्रतान और अपतान के ताने-बाने के जैसे प्रेरणा करते हुए (तते-आसते) सम्यक्तया बने हुए, ब्राह्मशरीरयज्ञ में या पुरुषशरीरयज्ञ में विराजते हैं, रहते हैं ॥१॥
भावार्थ - सृष्टियज्ञ और शरीरयज्ञ परमाणुओं द्वारा तथा परमात्मा के रचनाकर्मों द्वारा सौ वर्ष की आयुवाला मुक्तिसम्बन्धी ब्राह्मशरीर तथा भौतिक मनुष्यशरीर होता है, ऋतुएँ या प्राण निर्माण करते हैं, ताने-बाने के समान ये सृष्टि में या शरीर में रहते हैं ॥१॥
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