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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 14/ मन्त्र 1
    ऋषिः - यमः देवता - यमः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प॒रे॒यि॒वांसं॑ प्र॒वतो॑ म॒हीरनु॑ ब॒हुभ्य॒: पन्था॑मनुपस्पशा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तं सं॒गम॑नं॒ जना॑नां य॒मं राजा॑नं ह॒विषा॑ दुवस्य ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒रे॒यि॒ऽवांस॑म् । प्र॒ऽवतः॑ । म॒हीः । अनु॑ । ब॒हुऽभ्यः॑ । पन्था॑म् । अ॒नु॒ऽप॒स्प॒शा॒नम् । वै॒व॒स्व॒तम् । स॒म्ऽगम॑नम् । जना॑नाम् । य॒मम् । राजा॑नम् । ह॒विषा॑ । दु॒व॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परेयिवांसं प्रवतो महीरनु बहुभ्य: पन्थामनुपस्पशानम् । वैवस्वतं संगमनं जनानां यमं राजानं हविषा दुवस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परेयिऽवांसम् । प्रऽवतः । महीः । अनु । बहुऽभ्यः । पन्थाम् । अनुऽपस्पशानम् । वैवस्वतम् । सम्ऽगमनम् । जनानाम् । यमम् । राजानम् । हविषा । दुवस्य ॥ १०.१४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 14; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    (महीः-अनु प्रवतः परेयिवांसम्) पृथिवीलोकों पर स्थित पुराने, उन्नत और थोड़े समय के या ताजे उत्पन्न एवं सभी पदर्थों को सर्वतः अधिकार करके प्राप्त तथा (बहुभ्यः पन्थाम् अनुपस्पशानम्) बहुत प्रकारों से जीवनमार्ग को पाशतुल्य स्वाधीन करते हुए और (जनानां सङ्गमनं वैवस्वतं यमं राजानं हविषा दुवस्य) जायमान अर्थात् उत्पन्नमात्र वस्तुओं के प्राप्तिस्थानरूपसूर्य के पुत्र काल-समय प्रातः सायं-अमावस्या-पूर्णिमा-ऋतु-संवत्सर विभाग-युक्त राजा के समान वर्तमान विश्वकाल ‘समय’ को आहुतिक्रिया से हे जीव ! तू दीर्घायुलाभ के लिए स्वानुकूल बना। यह आन्तरिक विचार है ॥१॥

    भावार्थ - विश्वकाल संसार के सब पदार्थों को व्याप्त और प्राप्त है। वही सबकी उत्पत्ति, स्थिति और नाश का निमित्त है। उस सूर्यपुत्र को आयुवर्धक पदार्थों के होम द्वारा स्वानुकूल बनाना चाहिए ॥१॥

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