ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 140/ मन्त्र 1
अग्ने॒ तव॒ श्रवो॒ वयो॒ महि॑ भ्राजन्ते अ॒र्चयो॑ विभावसो । बृह॑द्भानो॒ शव॑सा॒ वाज॑मु॒क्थ्यं१॒॑ दधा॑सि दा॒शुषे॑ कवे ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । तव॑ । श्रवः॑ । वयः॑ । महि॑ । भ्रा॒ज॒न्ते॒ । अ॒र्चयः॑ । वि॒भा॒व॒सो॒ इति॑ विभाऽवसो । बृह॑द्भानो॒ इति॒ बृह॑त्ऽभानो । शव॑सा । वाज॑म् । उ॒क्थ्यृ॑अ॑म् । दधा॑सि । दा॒शुषे॑ । क॒वे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्ने तव श्रवो वयो महि भ्राजन्ते अर्चयो विभावसो । बृहद्भानो शवसा वाजमुक्थ्यं१ दधासि दाशुषे कवे ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । तव । श्रवः । वयः । महि । भ्राजन्ते । अर्चयः । विभावसो इति विभाऽवसो । बृहद्भानो इति बृहत्ऽभानो । शवसा । वाजम् । उक्थ्यृअम् । दधासि । दाशुषे । कवे ॥ १०.१४०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 140; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में परमात्मा आत्मसमर्पी स्तुतिकर्त्ता को मोक्ष में पहुँचाता है, वहाँ अमृतान्न भोग देता है, सबके लिये भोग्य वस्तु भी, संसार का उत्पादक, रक्षक है, उसका श्रवण वेद से किया जाता है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(विभावसो) हे विशिष्ट दीप्ति से बसनेवाले (अग्ने) अग्रणायक परमात्मन् ! (तव) तेरा (महि श्रवः) महान् सुनने योग्य वेदप्रवचन (वयः) विज्ञानरूप (अर्चयः) ज्ञानदीप्तियाँ (भ्राजन्ते) प्रकाशित हो रहे हैं (बृहद्भानो कवे) हे महान् तेजस्वी सर्वज्ञ परमात्मन् ! (शवसा) आत्मबल से (दाशुषे) अपने आत्मा को दे-चुकनेवाले-आत्मसमर्पी उपासक के लिए (उक्थ्यं वाजं दधाति) प्रशंसनीय मोक्ष का अमृतान्नभोग देता है ॥१॥
भावार्थ - परमात्मा विशेष ज्ञानदीप्ति से बसनेवाला है, उसका श्रवण करने योग्य वेद और विज्ञान है, उसकी ज्ञानदीप्तियाँ संसार के पदार्थों में प्रकाशित हैं, वह आत्मसमर्पी उपासक के लिए प्रशंसनीय मोक्ष का अमृतान्नभोग देता है ॥१॥
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