ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 144/ मन्त्र 1
ऋषिः - सुपर्णस्तार्क्ष्यपुत्र ऊर्ध्वकृशनो वा यामायनः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒यं हि ते॒ अम॑र्त्य॒ इन्दु॒रत्यो॒ न पत्य॑ते । दक्षो॑ वि॒श्वायु॑र्वे॒धसे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । हि । ते॒ । अम॑र्त्यः । इन्दुः॑ । अत्यः॑ । न । पत्य॑ते । दक्षः॑ । वि॒श्वऽआ॑युः । वे॒धसे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं हि ते अमर्त्य इन्दुरत्यो न पत्यते । दक्षो विश्वायुर्वेधसे ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । हि । ते । अमर्त्यः । इन्दुः । अत्यः । न । पत्यते । दक्षः । विश्वऽआयुः । वेधसे ॥ १०.१४४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 144; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
विषय - इस सूक्त में वीर्यरक्षा के उपाय और लाभ कहे गये हैं, मृत्युभय से बचाता है, यह आयुवर्धक, परमात्मा के साथ समागम करानेवाला है, रक्षणप्रकार शिवसङ्कल्प है, इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ -
(ते) हे आत्मन् ! तेरे लिये (अयं हि-अमर्त्यः-इन्दुः) यह ही न मरणधर्मी जिससे होता है, बन जाता है, वह ऐसा मानवबीज पदार्थ रेतोरूप इन्दु है। ब्रह्मचर्य से मृत्यु को जीतता है (अत्यः-न पत्यते) निरन्तर गमनशील अतिथि की भाँति महत्त्व को प्राप्त होता है। (वेधसे) इन्द्र-आत्मा के लिए (दक्षः-विश्वायुः) बलरूप बलप्रद आयु-पूर्ण आयु जिससे होती है, ऐसा है ॥१॥
भावार्थ - मनुष्य के अन्दर एक तत्त्व मानवबीज या वीर्य-ब्रह्मचर्य नाम से प्रसिद्ध है, जो मृत्यु से-मृत्यु के दुःख के बचानेवाला है, ऐसा बल या बलप्रद तथा पूर्णायु को भुगानेवाला है, उसकी रक्षा करनी चाहिए ॥१॥
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