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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 148 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 148/ मन्त्र 2
    ऋषिः - पृथुर्वैन्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - आर्चीभुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ऋ॒ष्वस्त्वमि॑न्द्र शूर जा॒तो दासी॒र्विश॒: सूर्ये॑ण सह्याः । गुहा॑ हि॒तं गुह्यं॑ गू॒ळ्हम॒प्सु बि॑भृ॒मसि॑ प्र॒स्रव॑णे॒ न सोम॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒ष्वः । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । शू॒र॒ । जा॒तः । दासीः॑ । विशः॑ । सूर्ये॑ण । स॒ह्याः॒ । गुहा॑ । हि॒तम् । गुह्य॑म् । गू॒ळ्हम् । अ॒प्ऽसु । बि॒भृ॒मसि॑ । प्र॒ऽस्रव॑णे । न । सोम॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋष्वस्त्वमिन्द्र शूर जातो दासीर्विश: सूर्येण सह्याः । गुहा हितं गुह्यं गूळ्हमप्सु बिभृमसि प्रस्रवणे न सोमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋष्वः । त्वम् । इन्द्र । शूर । जातः । दासीः । विशः । सूर्येण । सह्याः । गुहा । हितम् । गुह्यम् । गूळ्हम् । अप्ऽसु । बिभृमसि । प्रऽस्रवणे । न । सोमम् ॥ १०.१४८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 148; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    (शूर-इन्द्र) हे पराक्रमिन् परमात्मन् ! (त्वम्) तू (ऋष्वः) महान् (जातः) प्रसिद्ध है (सूर्येण) सूर्य के समान तू प्रतापी है (दासीः) अपने आत्मा को देनेवाली-आत्मसमर्पी (विशः) उपासक प्रजाएँ (सह्याः) तेरे सहन करने योग्य-तुझ से अपनाने योग्य प्रिया (गुहा हितम्) बुद्धि में रखे हुए (गुह्यम्) गुप्त (अप्सु-गूढम्) प्राणों में छिपे हुए को (बिभृमसि) हम धारण करते हैं (प्रस्रवणे न) जैसे प्रस्रवण-स्रोतों में (सोमम्) जल रहता है ॥२॥

    भावार्थ - परमात्मा शूरवीर महान् है, सूर्य के समान प्रतापी है, उसे अपनी आत्मा को समर्पित करनेवाली उपासक प्रजाएँ प्रिय हो जाती हैं, तू उनकी बुद्धि में और प्राणों में रहता है, जैसे स्रोतों में जल होता है ॥२॥

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