ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 155/ मन्त्र 5
ऋषिः - शिरिम्बिठो भारद्वाजः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - विराडनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
परी॒मे गाम॑नेषत॒ पर्य॒ग्निम॑हृषत । दे॒वेष्व॑क्रत॒ श्रव॒: क इ॒माँ आ द॑धर्षति ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । इ॒मे । गाम् । अ॒ने॒ष॒त॒ । परि॑ । अ॒ग्निम् । अ॒हृ॒ष॒त॒ । दे॒वेषु । अ॒क्र॒त॒ । श्रवः॑ । कः । इ॒मान् । आ । द॒ध॒र्ष॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
परीमे गामनेषत पर्यग्निमहृषत । देवेष्वक्रत श्रव: क इमाँ आ दधर्षति ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । इमे । गाम् । अनेषत । परि । अग्निम् । अहृषत । देवेषु । अक्रत । श्रवः । कः । इमान् । आ । दधर्षति ॥ १०.१५५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 155; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
पदार्थ -
(इमे) ये कृषक-किसान (गाम्) बैलों को (परि-अनेषत) खेतों को जोतने के लिए सब ओर ले जाते हैं (अग्निम्) खेती से अन्न प्राप्त होने पर अग्नि को भोजनपाकार्थ (परि-अहृषत) सब ओर प्रज्वलित करते हैं (देवेषु) विद्वानों के निमित्त तथा देवयज्ञ होम के निमित्त (श्रवः-अक्रत) अन्न को देते हैं और होम में आहुति देते हैं (कः-इमान्) कौन दुष्काल आदि इन प्राणियों को (आ-दधर्षति) पीड़ित करता है अर्थात् कोई नहीं ॥५॥
भावार्थ - जब वर्षा हो जाती है, तो किसान लोग बैलों से खेत जोतते हैं, खेतों में अन्न उत्पन्न होने पर अग्नि में भोजन बनाकर खाते हैं, विद्वानों के निमित्त अन्न प्रदान करते हैं और यज्ञ में भी होमते हैं, इस प्रकार अकेले अन्न नहीं खाना चाहिये, इस प्रकार करने पर दुर्भिक्ष पीड़ित नहीं करता ॥५॥
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