ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 158/ मन्त्र 2
जोषा॑ सवित॒र्यस्य॑ ते॒ हर॑: श॒तं स॒वाँ अर्ह॑ति । पा॒हि नो॑ दि॒द्युत॒: पत॑न्त्याः ॥
स्वर सहित पद पाठजोष॑ । स॒वि॒तः॒ । यस्य॑ । ते॒ । हरः॑ । श॒तम् । स॒वान् । अर्ह॑ति । पा॒हि । नः॒ । दि॒द्युतः॑ । पत॑न्त्याः ॥
स्वर रहित मन्त्र
जोषा सवितर्यस्य ते हर: शतं सवाँ अर्हति । पाहि नो दिद्युत: पतन्त्याः ॥
स्वर रहित पद पाठजोष । सवितः । यस्य । ते । हरः । शतम् । सवान् । अर्हति । पाहि । नः । दिद्युतः । पतन्त्याः ॥ १०.१५८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 158; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(सवितः) हे प्रेरक परमात्मन् ! (जोष) हमारी स्तुति को सेवन कर (यस्य ते) जिस तेरा (हरः) तेज प्रभाव-प्रताप (शतं सवान्) बहुतेरे चन्द्र आदि पिण्डप्रदेशों को (अर्हति) स्ववश में करने को समर्थ है (पतन्त्याः) नीचे गिरती हुई (दिद्युतः) विद्युत् से (नः) हमारी (पाहि) रक्षा कर ॥२॥
भावार्थ - परमात्मा का तेज-प्रताप आकाश के अनन्त चन्द्र आदि पिण्डप्रदेशों को अपने वश में रखता है और आकाश से नीचे गिरती हुई विद्युत् से रक्षा करने में समर्थ है, अतः उसके प्रति आस्तिक भाव रखना चाहिए ॥२॥
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